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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
गुण है । इन लक्षणादिक भेदोंसे ज्ञानदर्शन दोनोंका जुदा जुदा आराधन कहा गया है । श्लोकमें 'संभवति' क्रिया दीगई है, उसका यह अभिप्राय है कि इन दोनोंमें नानापना संभव है; अर्थात् विवक्षावश नानात्व भी है और अभेदविवक्षा अभिन्नता भी है । लक्षणादि भेद विवक्षासे भेद है; अन्यथा नहीं है ।
दोनों में कार्य कारणभाव
सम्यग्ज्ञानं कार्यं सम्यक्त्वं कारणं वदंति जिनाः । ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानंतरं तस्मात् ॥३३॥
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अन्वयार्थ - ( जिना: ) जिनेंद्रदेव ( सम्यग्ज्ञानं ) सम्यग्ज्ञानको ( कार्य ) कार्य और ( सम्यक्त्वं ) सम्यग्दर्शनको ( कारणं कारण ( वदंति ) कहते हैं, ( तस्मात् ) इसलिये ( ज्ञानाराधनं ) सम्यग्ज्ञानका आराधन ( सम्यक्त्वानंतर ) सम्यग्दर्शन के पीछे ( इष्टं ) ठीक है ।
विशेषार्थ — जिस प्रकार सूर्य और प्रकाश दोनों ही साथसाथ होते हैं; परन्तु सूर्य कारण है, प्रकाश उसका कार्य है । इसलिये प्रकाशप्राप्ति के लिये पहले सूर्य की आराधना की जाती है, पीछे प्रकाशकी । उसीप्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों ही साथसाथ होते हैं, फिर भी सम्यक्त्व कारण है, सम्यग्ज्ञान उसका कार्य है । अर्थात् सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति के होनेसे ही ज्ञानमें सम्यग्ज्ञानपना आता है । इसलिये सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति में सम्यग्दर्शन कारण है । पहले कारण की प्राप्ति की जाती है, पीछे कार्यकी । इस दृष्टिसे सम्यग्दर्शन पहले उपास्य अथवा प्राप्तव्य है, और सम्यग्ज्ञान पीछे उपास्य है ।
समकाल में होनेवाले कार्य-कारणका दृष्टांत
कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिख सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटं ॥३४॥
अन्वयार्थ – ( समकालं ) समान कालमें अर्थात् एक कालमें ( जायमानयोः अपि )
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