SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय अन्वयार्थ- ( दर्शनसहभाविनः अपि । सम्यग्दर्शनका सहभावी होनेपर भी ( बोधस्य ) सम्यग्ज्ञानका ( पृथगाराधनं ) जुदा आराधन करना अर्थात् सम्यग्दर्शनसे भिन्न प्राप्ति करना ( इष्टं ) इष्ट है; (यतः) क्योंकि ( अनयोः ) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें ( लक्षणभेदेन ) लक्षणके भेदसे ( नानात्वं ) नानापन अर्थात् भेद ( संभवति ) घटित होता है । विशेषार्थ-जिससमय आत्मामें सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, उससमय उसीके साथ मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति होकर सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है । साथसाथ होनेपर भी, सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके पीछे सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिके लिये उपदेश दिया गया है । यहांपर यह शंका होती है, 'जबकि दोनों साथ ही प्रगट होते हैं तो सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके लिये ही उपदेश देना ठीक है, सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिके लिये क्यों पृथक उपदेश दिया गया है ?' इसका उत्तर यह है कि-यद्यपि साथसाथ दोनों प्रगट होते हैं, फिर भी दोनोंका लक्षण जुदा है, दोनोंकी संख्या जुदी है, दोनोंके आवरण करनेवाले कर्म जुदे हैं, दोनोंका क्षयोपशम जुदा है, दोनोंके कार्य जुदे हैं, दोनोंके स्वरूप जुदे है; इसलिये उनका भिन्न भिन्न विधान बतलाया गया है । सम्यग्दर्शन का लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान ऊपर कहा जाचुका है । सम्यग्ज्ञानका लक्षण यथार्थ जानना है । किसी वस्तुको न कमती, न बढ़ती, न संदेहरूप, न विपरीतरूप, न अनध्यवसायरूप जानना किंतु जैसी है वैसी ही समझना; इसीका नाम सम्यग्ज्ञान है । अर्थात जो ज्ञान संशय-विपर्यय अनध्यवसाय से रहित यथार्थ वस्तुका परिचायक है, वही सम्यग्ज्ञान कहलाता है । सम्यग्दर्शन उपशम, क्षय, क्षयोपशम, इन भेदोंसे तीनप्रकार है । सम्यग्ज्ञान सुमति, सुश्रु त, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान, इन भेदोंसे पांचप्रकार है। सम्यग्दर्शनका आवरक-कर्म दर्शनमोहनीय है। सम्यग्ज्ञानका आवरक-कर्म ज्ञानावरण है । उन भिन्नभिन्न आवरणोंसे दोनोंके क्षयोपशमादिक भाव भी जुदे जुदे हैं । सम्यग्दर्शनका कार्य मोक्षमार्ग पर पहुंच जाना है । सम्यग्ज्ञानका कार्य उस मार्गमें आईंहुई अविवेक जनित वाधाओं का हटाना है । सम्यग्ज्ञान आत्माका जुदा गुण है, सम्यग्दर्शन जुदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy