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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय [ १६५ जाता है । तथा अहंतदेवके द्वारा कहे गये पदार्थों को ज्योंका-त्यों श्रीगणधरदेव और आचार्य प्रत्याचार्य कहते आये हैं, वे गौणआप्त हैं; परंतु वे सर्वज्ञदेवके कथनका ही वर्णन करते हैं, इसलिये वे भी आप्त हैं। उनके वचनोंसे जो पदार्थ-बोध होता है, वह भी आगम है । जैनशास्त्रोंको भी आगम कहा जाता है, वह उपचार-कथन है । वास्तवमें शास्त्रोंसे जो अर्थज्ञान होता है, उस ज्ञानका नाम आगम है । उस ज्ञानमें शास्त्र कारण हैं, इसलिये कारणमें कार्यका उपचार करके शास्त्रोंको भी आगम कहा जाता है । जिसका वक्ता सत्य है, वही आगम हो सकता है, और नहीं । दिगम्बर जैनाचार्यो ने ही सर्वज्ञदेवके वचनोंका अनुसरण किया है, उनके कथनको शास्त्रोंकी रचना द्वारा मूर्तिमान रूप दिया है । जो शास्त्र अल्पज्ञोंकी मूल रचना है, वे आगम नहीं कहे जा सकते । जैनागम युक्ति और प्रमाणोंसे अखंडित एवं निरावाध है, इसलिये वह प्रमाणभूत है। वास्तवमें विचार किया जाय, तो सबसे ऊपर प्रमाण अथवा सबसे बड़ा प्रमाण आगम ही है। जो पदार्थ मनुष्योंकी बुद्धिसे अगम्य हैं और जिनका परिज्ञान कराने में युकिवाद भी असमर्थ है, उनका ज्ञान आगमप्रमाणसे सहज हो जाता है । यदि लोकसे अथवा शास्त्रले, युक्तिसे अथवा हेतुवादसे आगम-कथित पदार्थों में बाधा आती हो, तो उसे आगम नहीं मानना चाहिये। जैनागम-कथित पदार्थों में कभी कोई बाधा नहीं आ सकती । इसलिये वह सर्वोपरि प्रमाण है । इसप्रकार परोक्षप्रमाणके पांच भेद हैं । इन प्रत्यक्ष-परोक्षप्रमाणोंसे और नयोंसे वस्तुतत्त्वका यथार्थ निर्णय करते हुये सम्यग्ज्ञानकी वृद्धि करना चाहिये । दर्शन और ज्ञानमें भेद पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोपि बोधस्य। लक्षणभेदेन यतो नानात्वं संभवत्यनयोः ॥ ३२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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