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[पुरुषार्थसिद्धच पाय
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देखते हैं । उनके परिणाम उन्हीं साधनोंसे धर्म-साधन की ओर झुक जाते हैं, इसलिये जिनमंदिरोंमें अपनी विभूतिके अनुसार आश्चर्य करनेवाली रचना करना चाहिए | जिनमंदिर समवशरण के स्थान में हैं, समवशरणकी जैसी विभूतियुक्त रचना होती हैं उसीप्रकार अपनी सामर्थ्य तथा विभूतिके अनुसार हमें भी जिनमन्दिरोंकी रचना करना चाहिए । यदि वीतराग मूर्तिके आयतन श्रीजिनमंदिर वीतराग ही बनानेसे वीतरागता आती हो, तो द्वादशांगका वेत्ता इंद्र समवशरणकी अनेक वन उपवन वाटिका स्तूप कोट आदि से सजाई हुई रत्नमय सुन्दर रचना क्यों करता है ? जैसे उस रचनासे जैनधर्मावलम्बियोंकी आत्मा पर विशेष धर्मानुराग, और जैनेतरअन्य धर्मावलम्बियों की आत्मापर जैनधर्मका विशेष चमत्कार होता है उसीप्रकार जिन मन्दिरोंकी रचना से समझना चाहिए। जिनमंदिर की शिखर सम स्त नगरसे उन्नत होनी चाहिये, उसपर बहुत विशाल ध्वजदंड होना चाहिए । उससे भी लोगों पर जिनधर्मका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है और प्रभावना होती है । इस वाह्यप्रभाव के सिवा जिनमन्दिरों की रचना में अंतरंग कारण यह है कि गृहस्थाश्रममें रहनेवाले स्त्री-पुरुष रातदिन गृह-संबंधी आरंभ करते हैं, उससे अशुभास्त्रव करते रहते हैं; उसी पापारंभकी कारणभूत लक्ष्मीका सदुपयोग यदि जिनमंदिरोंकी रचनामें करते हैं तो महान् पुण्यबंध करते हैं । धर्मायतनोंका निर्माण उनके बनानेवालोंके लिए महान् पुण्यबंधका कारण तो है ही, साथ ही अनेक जीवोंके शुभपरिणामों के लिए भी प्रधान कारण है । जिसप्रकार गृहस्थकी इच्छा अपने घरको सजाने की होती है, वैसे ही जिनन्दिरोंके सजाने के लिए भी उनके हृदय में धर्मानुराग उत्पन्न होता है; उसी अनुरागकी प्रेरणसे वे छत्र चमर झालर घंटा बरतन चौकी सिंहासन आदि उत्तमोत्तम जिनभक्तिके साधनों को सोने चांदी जवाहरात आदि वस्तुओंसे बनवाते हैं। इसके सिवा जिनपूजा के अतिशय प्रभावना करना चाहिये। जिनपूजा भी बड़ी विभूतिके
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