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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ १५६ साथ की जाती है। सबसे भारी विभूति जो मनुष्योंकी सामर्थ्यसे सर्वथा बाहर है, इंद्रध्वज पूजामें बतलाई गई है; इसलिए उस पूजनका अधिकारी इंद्र ही होता है । जिस पूजनमें लोगोंको उनकी इच्छानुसार दान दिया जाता है, बड़े ठाट-वाटके साथ चक्रवर्तिओं द्वारा की जाती है उसे कल्पद्रुमपूजन कहते हैं । जिस पूजनको चतुर्मुख प्रतिमाका स्थापन कर मुकुटवद्ध राजा करते हैं, उसे चतुमुखपूजन कहते हैं । अष्टाह्निकमें होनेवाली पूजनको अष्टाह्निकपूजन कहते हैं और प्रतिदिन घरसे उत्तमोत्तम शुछ और ताजे तैयार किये पक्वान्न फल आदि द्रव्योंको ले जाकर जो पूजन की जाती है, उसे नित्यपूजन कहते हैं । पूजन करनेवाला इंद्र तुल्य होता है, वह पूजक बनते समय अपनेमें इंद्रकी कल्पना करता है । इसलिये पूजा करनेवालोंको विभूतिसहित जिनमन्दिरमें जाना चाहिये । उत्तमोत्तम अलंकार उत्तमोत्तम वस्त्र पहन कर पूजा करना चाहिये । इस बातका ध्यान रखना परम आवश्यक है कि सभी अलंकार और वस्त्र शुद्ध होने चाहिये । अशुद्ध वा अपवित्र वस्त्रोंसे आत्मापर मलिनताका प्रभाव पड़ता है। इसीप्रकार प्रतिष्ठादिक महोत्सवों द्वारा जैनधर्मका प्रभाव एवं चमत्कार लोगों पर प्रगट करना चाहिये । बड़ी आयोजनाके साथ महोत्सवका होना वहांपर त्यागी तथा विद्वानोंके धर्मोपदेशका होना, बड़े ठाटबाट और विभूतिके साथ श्रीजिनेन्द्रदेवको रथमें विराजमान करके बीच नगरसे ले जाना, इत्यादि बातोंसे जैन और जैनतर सभी लोगों पर जैनधर्मका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है । इसप्रकारकी प्रभावना जगहजगह समयसमय पर होती रहना चाहिए।* सर्वार्थसिद्धिकार श्रीपूज्यपाद ___ * जो लोग यह कहते हैं कि 'वर्तमान समय में इन प्रतिष्ठादि कार्योंकी आवश्यकता नहीं है किंतु शिक्षालयोंकी है' वे एक आवश्यकताकी पूर्ति करना चाहते हैं, परन्तु दूसरी आवश्यकता लोप करते हैं। शिक्षालयों को आवश्यकता है, यह बात ठोक है। परन्तु प्रतिष्ठादि धर्मकार्योंकी आवश्यकता नहीं है, यह बात सर्वथा अयुक्त है। कारण जिसप्रकार शास्त्रार्थके द्वारा विजयलाभ कर चमत्कार प्रगट किया जाता है, अथवा बड़े पदपर पहुँचकर स्वजाति और स्वधर्मका गौरव बढ़ाया जाता है, उसीप्रकार प्रतिष्ठादि कार्योंसे लोगों पर दूसरे प्रकारका ही प्रभाव पड़ता है। जिससमय श्रीजिनेन्द्रदेवकी सवारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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