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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [ १५७ NNN यदि मंदिरोंकी रचना सादा हो तो अनेक सरागियोंका वहां चित्त ही नहीं लगे; मन्दिरोंके ऐश्वर्यशाली होनेसे आत्मापर बहुत बड़ा जिनधर्मका चमत्कार एवं प्रभाव पड़ता रहता है । उसी निमित्तसे आत्मा उन नाना दृश्योंके साथ वीतराग जिनदेवकी सेवामें विशेष धर्मानुरागके साथ प्रवृत हो जाता है । यह निश्चित है कि-जितने साधन होंगे, जितना उत्तम क्षेत्र होगा, जितनी बढ़िया चौकी होगी, जितने उत्तम चांदी सोनेके वर्तन होंगे, उतना ही चित्त विशेषरीतिसे वहां संलग्न रहेगा । उत्तम रत्नोंकी सुन्दरमाला होगी तो ध्यान करनेके लिये सरागी पुरुषोंका चित्त विशेष आकर्षित होगा । विशेष साधन आत्माको कार्यकी ओर खींचने के कारण हैं और आत्मा के उधर खिच जानेसे वह उन साधनोंकी सहायतासे वीतरागताकी ओर झुक जाता है; क्योंकि आदर्श एवं उपास्यदेव तो वीतराग हैं, वे तो सराग नहीं किये गये हैं । यदि वे भी सराग बना दिये जाय तब तो हमारा आदर्श ही न रहे, उपास्यदेवका स्वरूप ही नष्ट हो जाय । इसलिये जिनमंदिरोंके जिनाधीश वीतराग होनेसे उन सराग साधनोंसे आत्मा वीतरागताकी ओर ही झुक जाता है, सरागताकी ओर जाता ही नहीं । मकान महल भी सजाये जाते हैं, जिनमंदिर भी सजाये जाते हैं, परन्तु मकान महलोंकी सजावट देखकर आत्मा भोगविलास भोगनेकी ओर दौड़ता है और जिनमंदिरकी सजावट देखकर पूजन करनेकी, ध्यान करनेकी, भक्ति करने की और स्वाध्याय करनेकी ओर दौड़ता है । इसका कारण यही है कि घरोंमें उपास्यपदार्थ सराग है, वहांपर रहनेवाले स्त्री-पुरुष आदि उन घरोंके अधिपति (स्वामी) सरागी हैं, भोगी विलासी हैं; इसलिये उनके सजाये हुए घरों को देखनेवाले सरागी जीवोंके परिणाम भी भोगविलासोंकी ओर झुक जाते हैं, परंतु जिनमंदिरमें श्रीवीतरागदेवकी वीतरागताकी मुद्रा (छाप) अंकित है, इसलिये वहांकी शोभा देखनेवाले सरागी भी उसी सरागसामग्रीमें वीतरागताकी झलक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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