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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय ___ अन्वयार्थ- ( रत्नत्रयतेजसा ) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्र ये ही तीन रत्न कहलाते हैं, इनके प्रतापसे ( सततं एव ) निरंतर ही ( आत्मा ) अपना आत्मा ( प्रभावनायः ) प्रभावित करना चाहिये (च ) और (दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैः) दान तप जिनेंद्र पूजन और विद्या के अतिशय-चमत्कारोंसे ( जिनधर्मः ) जैनधर्म प्रभावित करना चाहिये।
विशेषार्थ—प्रभावनाके भी पहले अंगोंके समान दो भेद हैं, १. अपनी प्रभावना और. २ जैनधर्मकी प्रभावना । सम्यग्दर्शनकी दृढ़ता, सम्यग्ज्ञान की वृद्धि और सम्यकचारित्रजनित बढ़ी हुई उत्तरोत्तर विशुद्धतासे अपने आत्माको प्रभावित करना चाहिये । सम्यक्त्वकी निश्चल ( अडोल ) दृढ़ता देखकर दूसरोंको आश्चर्य उत्पन्न होने लगे, अनेक शास्त्रोंके परिज्ञान एवं उनके रहस्य अच्छीतरह समझ लेनेसे दूसरोंकी आत्मापर श्रुतज्ञानकी वृद्धिका पूर्ण प्रभाव पड़ने लगे; चारित्रकी इतनी वृद्धि करना चाहिये कि जिससे असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा बराबर होती जाय तथा आत्मा उत्तरोत्तर महान् विशुद्ध होता चला जाय, उस बढ़े हुए चारित्रको देखकर दूसरे आश्चर्य करने लगें और आत्मीय सामर्थ्यकी हृदयसे प्रशंसा करने लगें एवं अनेक त्यागी उसी मार्गपर चलनेके लिये आदर्श समझने लगें । इसप्रकार रत्नत्रयके तेजते अपने आत्माकी प्रभावना करना चाहिये । तथा दानादि सत्यवृत्तियों में जैनधर्मकी प्रभावना करना चाहिये । जिनमंदिरोंकी रचना इसप्रकारकी कराना चाहिये जिससे दूसरे मतवालोंके हृदयमें भारी चमत्कार दीखने लगे। कहीं मोती लगेहए हैं, कहीं माणिक, हीरा, पन्ना जड़े हुये हैं, कहीं सोनेके चित्र बनेहुये हैं, कहीं पच्चीकारीकी अपूर्व कारीगरी होरही हैं, समोशरणकी रचना होरही है, जिनमंदिरोंकी बहुत बड़ी विभूतिको देखकर दूसरे लोग जैनधर्मवालोंके दानकी प्रशंसा करने लगें। कुछ लोग कहते हैं कि 'जिनमंदिरोंमें रचना विशेष नहीं कराना चाहिये उन्हें वीतरागता उत्पन्न करनेवाले खंडहर सरीखे सादा ही रखना चाहिये' परन्तु ऐसा समझना और उपदेश देना बड़ी भारो भूल है। उन्हें इस बातका अनुभव नहीं है कि मंदिरोंकी समधिक शोभा बढ़ानेसे ही सरागी जीवोंकी प्रवृत्तियां वीतराग मूर्तिमें स्थिर होती हैं।
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