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[पुरुषार्थसिद्धय पाय
भासमें (नित्यं) सदा (अपि ) ही ( तत्त्वरुचिना) सम्यग्दृष्टिके द्वारा-सम्यग्दृष्किो (अमूढदृष्टित्वं ) मूढ़तारहित श्रद्धान ( कर्त्तव्यं ) करना चाहिये।
विशेषार्थ- किसी विपरीत तत्त्वमें दूसरोंकी देखादेखी प्रवृत्त हो जानेको मूढ़ता कहते हैं । जैसे देखने में आता है कि अनेक पुरुष लोकमें प्रचलित मूढ़तामें लगे रहते हैं, कोई बालूके ढेरोंकी पूजा करते फिरते हैं, कोई नदीके गोल अथवा लम्बे आदि आकारवाले पत्थरोंकी पूजा करते फिरते हैं, कोई अग्निकी पूजा करते हैं, कोई पानीकी पूजा करते हैं । ये सब लोकमें प्रचलित मूढ़तायें हैं। इनमें अज्ञानी लोक प्रवृत्त होकर दुःख फलका संग्रह करते हैं । यह भी मिथ्यात्वकर्मके उदयका परिपाक है। कोई कुदेवोंमें ( रागी द्वषी देवोंमें ) सुदेव बुद्धि रखकर उनकी पूजामें लगे हुए हैं, कोई कषायी, परिग्रही, आरंभी, हिंस्रक आदि कुगुरुओंमें सुगुरुबुद्धि रखकर उनकी पूजा करते है; इसीप्रकार अनेक पुरुष अधर्ममें हिंसा आदिक दुष्कृत्योंमें धर्म समझकर प्रवृत्त हो रहे हैं । यह सब कार्य मूढ़पनेके हैं । जबतक आत्मामें मिथ्यात्वकर्मका तीव्र उदय रहता है, तबतक उसकी बुद्धि मूढ़ताकी ओर जाती है । सम्यग्दृष्टिकी आत्मामें मूढश्रद्धान नहीं होता; क्योंकि वह वस्तुस्वरूपको जान चुका है । वह सदा रागद्व प-रहित वीतराग तथा सर्वज्ञदेवमें ही देवत्व-बुद्धि रखता है, सर्वज्ञ वीतराग श्री अहंतदेवके कहे हुए पदार्थको ही आगम समझता है । जिनमें हिंसाका पोषण किया गया है, इंद्रियोंकी प्रवृत्तिमें धर्म बतलाया गया है, आत्मीय तत्त्वका लोप करके केवल भौतिकवादका समर्थन किया गया है तथा पदार्थों का विपरीत स्वरूप बतलाया गया है, उन सबको सम्यग्दृष्टि शास्त्राभास जानता है। वह निग्रंथ, निष्परिग्रही निरारंभी, निष्कषाय तथा ज्ञानध्यानतपमें लवलीन साधुको ही साधु ( मुनि ) समझता है । उत्तमक्षमा मार्दव आर्जव सत्य शौच संयम आदि अहिंसामय धर्मको ही धर्म समझकर उसमें प्रवृत्त होता है । यही सम्यग्दृष्टिका अमूढदृष्टित्व (तत्त्वश्रद्धान ) है । वह सत्स्वरूपले कभी विचलित नहीं होता ।
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