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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] [१४६ अनिष्टरूप हो जाता है। इससे यह बात निर्णीत है कि पदार्थ सभी अपने अपने स्वरूपको लिये हुए हैं, उनमें इष्टता अनिष्टता कुछ नहीं है, यह सब मोहजनित आत्माका विभावपरिणाम है । सम्यग्दृष्टिके यह विभावपरिणाम नहीं है, इसलिये उसे दुर्गंधित विष्टा आदिक घृणा उत्पन्न करनेवाले पदार्थों में और क्षुधा तृषा आदिक दुःखदेनेवाले पदार्थों में ग्लानि एवं तिरस्कारभाव नहीं होता है; कारण वह उन सब पदार्थों के स्वरूपको उसीप्रकार समझता है । असाताकर्मके उदयसे क्षुधादिक वेदनाएँ सताती हैं, दुर्गंध सुगंध, सुरूप कुरूप आदि सब पुद्गलकी पर्याय हैं, उनमें उसे रुचि अरुचि नहीं है; इसलिये सम्यग्दृष्टि के निर्विचिकित्सा अंगका पालन होता है । इसीप्रकार मुनिमहाराजके धूलिपानीसे विशिष्ट शरीरको देखकर जो उससे ग्लानि करते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं, वस्तुस्वभाव से अनभिज्ञ हैं; उन्हें नहीं मालूम है कि शरीर तो स्वभावसे ही अपवित्र है, परन्तु मुनिमहाराजने ध्यानाग्निमें तपाकर उसे भी पवित्र बना लिया है । सम्यग्दृष्टिको मुनियोंके मलिन शरीरको देखनेपर भी उससे धार्मिक अनुराग होता है । ग्लानि तो उत्पन्न ही नहीं होती । इसीप्रकार किसी रोगीको, कुष्ट शरीरवालेको, लंगड़ेको, लूलेको देखकर कभी घृणाभाव नहीं करना चाहिये, कारण वह सब कर्मकृत अवस्था है । घृणा करना पापबंधका कारण है, इसीलिये सम्यग्दृष्टिके उन कर्मसे सताये हुए जीवोंसे घृणा नहीं होती, किंतु उसके चित्तमें दया उत्पन्न होती है। अमूढदृष्टि अंगका लक्षण लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे। नित्यमपि तत्त्वसचिना कर्त्तव्यममूढ़दृष्टित्वम्॥२६॥ अन्वयार्थ-( लोके ) लोकमें ( शास्त्राभासे ) शास्त्राभासमें-जो शास्त्र तो न हों परन्तु शास्त्र सरीखे मालूम होते हों उसमें ( समयाभासे ) धर्माभासमें (च) और ( देवताभासे ) देवता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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