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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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अनिष्टरूप हो जाता है। इससे यह बात निर्णीत है कि पदार्थ सभी अपने अपने स्वरूपको लिये हुए हैं, उनमें इष्टता अनिष्टता कुछ नहीं है, यह सब मोहजनित आत्माका विभावपरिणाम है । सम्यग्दृष्टिके यह विभावपरिणाम नहीं है, इसलिये उसे दुर्गंधित विष्टा आदिक घृणा उत्पन्न करनेवाले पदार्थों में और क्षुधा तृषा आदिक दुःखदेनेवाले पदार्थों में ग्लानि एवं तिरस्कारभाव नहीं होता है; कारण वह उन सब पदार्थों के स्वरूपको उसीप्रकार समझता है । असाताकर्मके उदयसे क्षुधादिक वेदनाएँ सताती हैं, दुर्गंध सुगंध, सुरूप कुरूप आदि सब पुद्गलकी पर्याय हैं, उनमें उसे रुचि अरुचि नहीं है; इसलिये सम्यग्दृष्टि के निर्विचिकित्सा अंगका पालन होता है । इसीप्रकार मुनिमहाराजके धूलिपानीसे विशिष्ट शरीरको देखकर जो उससे ग्लानि करते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं, वस्तुस्वभाव से अनभिज्ञ हैं; उन्हें नहीं मालूम है कि शरीर तो स्वभावसे ही अपवित्र है, परन्तु मुनिमहाराजने ध्यानाग्निमें तपाकर उसे भी पवित्र बना लिया है । सम्यग्दृष्टिको मुनियोंके मलिन शरीरको देखनेपर भी उससे धार्मिक अनुराग होता है । ग्लानि तो उत्पन्न ही नहीं होती । इसीप्रकार किसी रोगीको, कुष्ट शरीरवालेको, लंगड़ेको, लूलेको देखकर कभी घृणाभाव नहीं करना चाहिये, कारण वह सब कर्मकृत अवस्था है । घृणा करना पापबंधका कारण है, इसीलिये सम्यग्दृष्टिके उन कर्मसे सताये हुए जीवोंसे घृणा नहीं होती, किंतु उसके चित्तमें दया उत्पन्न होती है।
अमूढदृष्टि अंगका लक्षण लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे। नित्यमपि तत्त्वसचिना कर्त्तव्यममूढ़दृष्टित्वम्॥२६॥ अन्वयार्थ-( लोके ) लोकमें ( शास्त्राभासे ) शास्त्राभासमें-जो शास्त्र तो न हों परन्तु शास्त्र सरीखे मालूम होते हों उसमें ( समयाभासे ) धर्माभासमें (च) और ( देवताभासे ) देवता
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