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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय [ १५१ उपगृहन अंगका लक्षण धर्मोभिवर्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया । परदोपनिगृहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ॥२७॥ अन्ध्यार्थ—(उपहणगुणार्थं ) उपवृहणगुणके लिये अर्थात् उपगूहनअंगकी रक्षाके लिये ( मार्दवादिभावनया) मार्दव आर्जव क्षमा सत्य आदि भावनाओंके द्वाग ( सदा ) निरंतर ( आत्मनः । आत्माका ( धर्मः ) धर्म ( अभिवर्धनीयः) बढ़ाना चाहिये ( परदोषनिगृहनं अपि ) दूसरेके दोषोंका आच्छादन भी ( विधेयं ) करना चाहिये । विशेषार्थ-उपगूहन और उपवृहण इन दोनों शब्दोंका एक ही अर्थ है । ये दोनों शब्द बढ़ानेके अर्थ में भी आते हैं और छिपानेके अर्थमें भी आते हैं । जहां बढ़ानेसे प्रयोजन है वहां आत्मीयभावोंसे संबंध है, जहां छिपानेसे प्रयोजन है वहां दूसरेके भावोंसे संबंध है । अर्थात् उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव सत्य आदि गुणोंके द्वारा अपने आत्मीयभावोंको वृद्धिंगत करना चाहिये और दूसरोंके दोषोंको छिपाना चाहिये । 'दूसरेके दोषोंके छिपाने में क्यों धर्म समझा गया, क्योंकि दोषोंका प्रगट करना अच्छा है, दोषोंके प्रगट करनेसे बहुत संभव है कि सदोषी व्यक्ति दोषोंको छोड़कर निर्दोष बन जाय, फिर दोषोंको छिपाना सम्यक्त्वका अंग क्यों बतलाया गया है ?' इस आशंकाका यह उत्तर है कि यहांपर समस्त कथन अभिप्रायसे संबंध रखता है, इसलिये सरलता एवं भावोंमें निष्कषायता रखनेकी दृष्टि से यह अंग कहा गया है । यदि किसी पुरुषको दोषी देखकर अपने भावोंमें यह बात उत्पन्न हो कि 'यह दोषोंसे छूट जाय तो अच्छा है, इसका कल्याण हो जायगा, अन्यथा अनर्थों का भाजन बनता रहेगा' इस भावको हृदयमें रखकर उसके दोषोंको प्रगट कर देना अनुचित तथा अनुपगृहन नहीं है । परन्तु जहां भावोंमें यह बात है कि 'इसके दोषोंका प्रकाश करनेसे यह जगतमें अपकीर्तिका भाजन बनेगा, इसकी बुरीतरह निंदा होगी, उस निंदासे इसे दुःख होगा' ऐसा अभिप्राय रखकर जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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