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________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] एवं स्वानुभवगम्य दृढ़श्राद्ध होती है । यह बात भी भ्रमपूर्ण है कि बालक को, उसके अनुभव करनेसे ही हर एक बातकी शिक्षा दिलानी चाहिये, बिना उसके निजके अनुभवके उसे उपदेश देना हितकर नहीं एवं व्यर्थ है । क्योंकि बुद्धिमान पिता माताका क्या यह कर्तव्य है कि बालकको कुएमें गिरनेसे न रोकें, उसे गिर जाने दें ? और यह कहते हुये कि 'कुए में गिरकर वह स्वयं शिक्षा ले लेगा कि यह कुआ है, इसमें नहीं गिरना चाहिये ?' देखते रहें तो क्या वैसी धारणा रखनेवाले माता पिता अपने प्रिय पुत्रको फिर खिला सकते हैं अथवा उसे पुनः शिक्षा देनेका अवसर पा सकते है ? और क्या उस अपरिपक्व एवं अनुभवशून्य बालकको कुएमें गिर जानेके बाद फिर कुएका अनुभव एवं श्रद्धा हो जाती है ? वह तो कुएसे निकालनेपर उसीके किनारेपर छोड़ देनेसे फिर भी उसीमें गिरनेके लिये तैयार दीख पड़ता है। इसलिये बालकको कुएकी प्रतीति एवं उपदेशद्वारा ही दृढ़श्रद्धा कराई जायेगी, तभी वह वहां जानेसे रुक सकता है, अन्यथा नहीं । दूसरे, अनुभवके विना यदि बालकके हृदयमें किसी वस्तुके गुणदोषोंकी दृढ़श्रद्धा उत्पन्न न कराई जाय तो उस बालकका सुधार ही असंभव है। कारण मदिरापानसे नशा आता है, तमाखू खानेसे कलेजा जल जाता है, विष खानेसे मृत्यु हो जाती है, बिजलीका तार अथवा उसका यंत्र (नाइफ स्वीज़) छूनेसे बिजली शरीरमें प्रविष्ट हो जाती है, इत्यादि सब बातें ऐसी हैं जिनका बालकको अनुभव नहीं है; यदि वह उनका सेवन करके अनुभट करने बैठे तो तुरन्त ही उसकी दूसरी अवस्था हो जाय, परन्तु उसे श्रद्धान रहता है कि उक्त वस्तुयें हानिप्रद हैं। इसलिये यह बात ठीक नहीं है कि 'पहले प्रत्येक वस्तुका अनुभव होनेके पीछे ही श्रद्धान करना ठीक है। यह दृष्टांत बालकके लिए दिया गया है; इसका एक अंश ही ग्रहण करना चाहिये, सर्वांश नहीं । क्योंकि सम्यग्दृष्टिके जो श्रद्धान होता है, वह सम्यग्दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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