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________________ १४४ ] [ पुरुषार्थसिद्धय पाय है, वास्तवमें वह जलाती है या नहीं; यह अनुभव बालकको कभी नहीं हो सकता। इसीप्रकार किसी विषयको किसी पुरुषकी श्रद्धा कराना, उसकी उन्नति एवं अनुभवका रोक देना है। वह जिन जिन पदार्थों का ज्ञान करता जायगा, उनका हृढ़ विश्वास उसे स्वयं होता जायगा; बिना उसके निजके अनुभवके उसे श्रद्धा कराना व्यर्थ है ?' जो लोग ऐसा कहते हैं, वे न तो श्रद्धाका स्वरूप समझते हैं और न ज्ञानका ही महत्व जानते हैं । यह बात सर्वथा अयुक्त है कि बिना अनुभवके दृढ़ एवं यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता । क्या मोक्ष जानेके पूर्व मोक्षका यथार्थ बोध उन महाव्रती तपस्वियोंको नहीं होता है, अथवा उनकी दृढ़ श्रद्धा उस सम्बन्ध में नहीं होती है ? यदि न हो, तो वे मोक्षके लिये कभी प्रयत्नशील न बनें । क्या सर्वज्ञ होनेके पूर्व उन्हें सर्वज्ञताका बोध एवं श्रद्धान नहीं होता है ? यदि नहीं, तो अविश्वस्त पदार्थकी प्राप्तिके लिये वे क्यों असाधारण अचिन्त्य तप एवं ध्यान करते हैं ? पहले सर्वज्ञताका श्रद्धान एवं मोक्षाका श्रद्धान उसकी प्राप्तिके लिये प्रधान कारण है । इसीप्रकार धर्मका स्वर्गादिप्राप्ति फल प्रत्यक्ष नहीं है तथा अधर्मका नरकादि फल भी प्रत्यक्ष नहीं है; वैसी अवस्थामें बिना उन सबका अनुभव एवं प्रत्यक्ष किये धर्ममें प्रवृत्ति एवं अधर्मसे भीति किसीको नहीं करना चाहिये । परन्तु ऐसा नहीं होता, धर्म अधर्मके फलोंमें प्रतीति रखकर प्रत्येक बुद्धिमान धर्मसेवनमें तथा अधर्म छोड़नेमें प्रवृत्ति करता है । इतना ही नहीं, किंतु आत्मा स्वयं बस्तुस्वभावकी ओर झुकता है । वह अधर्म मार्गमें जाते हुये भय खाता है, धर्ममार्गमें जाते हुये प्रसन्न एवं प्रवल तेज पूर्ण हो जाता है । जिसप्रकार क्षयोपशम होनेसे ज्ञान होनेकी योग्यता आत्मामें उत्पन्न हो जाती है, उसीप्रकार सम्यक्त्वभाव होनेसे आत्मामें यथार्थ श्रद्धा एवं स्वानुभव होनेकी योग्यता प्रगट हो जाती है । यह बात पहले स्पष्ट हो चुकी है, आत्मीय गुणोंके स्वभाव एवं धर्म अनिवार्य हैं, बिना ज्ञानके भी यथार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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