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________________ १४६ ] [पुरुषार्थसिद्धय पाय गुणके प्रभावसे स्वानुभवगम्य होता है । वहां भी समस्त वस्तुओंके परिज्ञानकी आवश्यकता नहीं है, किंतु स्वात्मानुभूति ही प्रधान है । समस्त वस्तुओंका ज्ञान न होनेपर भी सम्यग्दृष्टिको उनकी यथार्थ दृढ़ता हो जाती है, यह एक गुणस्वभाव है । जहां निश्चयसम्यक्त्व नहीं है केवल व्यवहार सम्यक्त्व है, वहां आगमानकूल श्रद्धाका होना ही निश्चयसम्यक्त्वका साधक है; कारण जिनमतमें उसी मार्गसे निश्चयसम्यक्त्वकी प्राप्ति बतलाई है । इसलिये व्यवहारसम्यग्दृष्टि आगमसे एक अक्षरमात्र भी प्रतिकूल विचार नहीं रखता है । वह देवशास्त्रगुरुकी दृढ़श्रद्धा रखता है, इसीलिये देवपूजनमें विशेष अनुराग शास्त्रवचनोंपर पूर्ण दृढ़ता, विशेष चारित्रधारक गुरुओंकी उपासनामें अनुराग, सम्यग्दृष्टियोंसे विशेष प्रेम, धार्मिकोंसे सम्मेलन एवं वात्सल्य, जिनविम्ब महोत्सव, प्रतिष्ठादिक कार्य, जैनधर्मकी प्रभावना आदि समस्त धर्मसंबंधी कार्यों में उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। उसकी वह प्रवृत्ति एवं विशेष अनुराग कृत्रिम नहीं होता। जहांपर वास्तव में निश्चयसम्यक्त्वका कारणभूत व्यवहारसम्यक्त्व नहीं है, वहांपर उक्त कार्यों की प्रवृत्ति अनुरागपूर्वक नहीं होती है। वहां न देवभक्ति में विशेष आनन्द एवं उल्लास है, न शास्त्रवचनोंपर दृढ़ता है, न सम्यग्दृष्टि एवं व्रतियोंसे अनुराग है, और न प्रतिष्ठादि कार्यों में ही सानन्द प्रवृत्ति है। ऐसी आत्माओंमें व्यवहारसम्यक्त्व नहीं है, यह बात जानी जाती है; क्योंकि सम्यग्दृष्टिका वाह्यलक्षणश्री गोम्मटसारमें ऐसा कहा है"णो इंदिएसु विरदो णो जीवे थावरे 'तसे वापि । जो सद्दहदि जिणुत्त सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥ २६ ॥” ( जीवकांड ) अर्थात् जो इंद्रियोंसे भी विरक्त नहीं है और जो त्रसहिंसा तथा स्थावरहिंसासे भी विरक्त नहीं है; परन्तु जिनेंद्रदेवके कहे हुए वचनोंपर दृढ़ श्रद्धान रखता है, वह अविरत १ सम्यग्दृष्टि संकल्पी त्रसहिंसा नहीं करता, किंतु आवश्यकतानुसार वह विरोधी, आरंभी और उद्योगी-हिंसामें प्रवृत्त हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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