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________________ १२४ ] [पुरुषार्थसिद्धय पाय जो व्यापार है, वही बंध-कारणस्वरूप कर्मचेतना कही जाती है । तथा स्वस्थभावसे रहित, अज्ञानभावसे यथासंभव ईहापूर्वक प्रगट-अप्रगट स्वभावरूप इष्ट-अभिष्ट विकल्प परिणामोंसे हर्षविषादस्वरूप जो सुखदुःखका अनुभव किया जाता है, वह बंध-कारणभूत कर्मचेतना कहलाती है। ____ आत्मानुभूति-च्युत जीवके स्वस्थभाव-रहित अज्ञानभावसे कर्मचेतना और कर्मफलचेतना होती है; दोनों ही बंधकारणस्वरूप हैं । सम्यग्दृष्टिको दुःखबीज कर्मबंधका कर्ता भी नहीं कहा गया है, क्योंकि वह अस्ताभिलाषी है। इस बातको आगे व्यक्त करेंगे। स्वामी अमृतचंद्रसूरिने आत्मख्याति टीका पृष्ठ १६५ पर लिखा है कि "ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनं अज्ञानचेतना ॥” दोनों चेतनाओंको संसारबीज बतलाया है । सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानसे भिन्न अज्ञानभावोंमें वेदन नहीं करता; इसलिये सम्यग्दृष्टि जीवके कर्मफलचेतना तथा कर्मचेतना दोनों ही नहीं होती, यह वात ऊपरके समस्त प्रमाणोंसे निर्णीत हो चुकी। ___ अब कर्मचेतना और कर्मफलचेतना सम्यग्दृष्टिके क्यों नहीं हो सकती, इसी बातको स्पष्ट किया जाता है । सम्यग्दृष्टिके कर्म कर्मफलचेतना माननेवाले यही एक हेतु देते हैं कि 'जब वह आत्मानुभूतिसे हटकर आरंभ परिग्रह भोगोंमें अपने उपयोगको लगाता है, रागद्वेषपूर्वक किसी काम को करता है तथा विषयभोगोंमें अनुरक होता है, उससमय उसके कर्मचेतना और कर्मफलचेतना कही जायेगी।' यह कथन युक्ति और सिद्धान्त दोनोंसे ही प्रतिकूल पड़ता है । पहले तो आत्मानुभूति और रागद्वेषपूर्वक काम करनेका कोई संबंध ही नहीं है । आत्मानुभूति मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबन्धिकर्मके अभावमें प्रगट होती है, और रागद्वेषकी प्रवृत्ति चारित्रमोहनीयके उदयसे होती है । इस कार्य-कारणकी विचारणासे यह बात सिद्ध हो जाती है कि जहां चारित्रमोहनीयके उदयसे रागद्वेषपूर्वक जीवकी प्रवृत्ति है, वहां मिथ्यात्वका अभाव हो तो आत्मानुभूति भी होती रहती है। जीवका उपयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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