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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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स्वानुभूतिमात्रमें हो, अथवा स्वानुभूति लब्धिरूप ही रहे और उपयोग वाद्यपदार्थों में हो, तो भी रागद्वेषसे उसका कोई संबंध नहीं है । उपयोग ज्ञानात्मक है । उसीके लब्धि और उपयोग दो भेद हैं । क्षयोपशमरूप जितने भी ज्ञान हैं सभी संक्रमणात्मक हैं । वे सदा अर्थसे अर्थान्तरका ग्रहण करते ही रहते हैं । उनमें कोई ज्ञान मनसे साक्षात् उत्पन्न होता है; किसीमें मनकी परम्परा निमित्तता है । इसीलिये एक समय में एक ही उपयोग क्षयोपशम-ज्ञानधारियोंके होता है । केवलज्ञान क्षायिक है उसमें मनकी निमित्तता किसीप्रकार नहीं है; इसलिये वह स्वोपयोगी और परोपयोगीरूप सदा एक साथ ही रहता है । इसीलिये उसे संक्रमणात्मक नहीं कहा गया है । हां, परपदार्थों में उसका भी पदार्थों के संक्रमणसे संक्रमण होता है, परन्तु आत्मोपयोग तथा परोपयोग दोनोंमें कभी व्युच्छित्ति नहीं आती; इसलिये उसे संक्रमण में शामिल नहीं किया जाता । इसप्रकारका संक्रमण शुद्धात्मानुभूतिमें बाधक नहीं है । दूसरी बात यह भी है कि केवलज्ञान वीतराग है; क्षयोपशम-ज्ञान सराग है । इसी सरागता और वीतरागता के कारण सम्यक्त्वको भी कोई कोई सराग और वीतराग समझकर सराग- सम्यक्त्वीके कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतना भी कह देते हैं और वीतराग- सम्यग्दृष्टिके (केवलज्ञानीके) केवलज्ञानचेतना कहते हैं । कर्मचेतना और कर्मफलचेतना वहीं पर होती है, जहां अभिलाषापूर्वक ( रुचिपूर्वक) एवं अज्ञानभावसे रागद्वेषपूर्वक कर्म किया जाता है । सम्यग्दृष्टिके जो रागद्वेष है, वह केवल चारित्रमोहनीयके उदयसे है । मिथ्यात्व मिश्रित न होनेसे वह कर्मबंधक नहीं माना गया । चारित्रमोहनीयका उदय और उपयोग से उपयोगान्तर जोकि क्षयोपशम-ज्ञानका स्वभाव है, दोनों ही सम्यग्दृष्टि की ज्ञानचेतनामें बाधक नहीं हैं । इसी बातको पञ्चाध्यायी की कतिपय कारिकाओं से स्पष्ट किया जाता है
' हेतुः शुद्धात्मनो ज्ञाने शमो मिथ्यात्वकर्मणः । प्रत्यनीकस्तु तत्रोच्च रशमस्तत्र व्यत्ययात् ॥ ६७८ ।।
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