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है; इसलिये उसके उक्त दोनों चेतनायें नहीं हो सकतीं ।
मोहमलीमसता एवं निर्मल शुद्धात्मानुभूतिका अभाव मिथ्यादृष्टिके ही होता है, सम्यग्दृष्टि के लब्धिरूप सद्भाव सदैव रहता है । वाह्यपदार्थों की उपयोगावस्था में भी उसका अभाव कभी नहीं कहा जा सकता । चाहे आत्मा वाह्य पदार्थों में उपयुक्त हो अथवा न हो, वह स्वानुभूतिवाला सदैव है । सम्यग्दर्शन और स्वानुभूतिका परस्पर अविनाभाव है । कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाका स्वामी स्वानुभूतिके अभाववाला बतलाया गया है । इसलिये स्पष्ट सिद्ध है कि वह मिथ्यादृष्टि होता है । 'निर्मल शुद्धात्मानुभूतिके अभावमें उपार्जित जो मोहमलिनमा' इस वाक्यसे तो स्पष्ट सिद्ध है कि कर्म एवं कर्मफलचेतनाओंका स्वामी मिथ्यादृष्टि ही बतलाया गया है । आगे चलकर स्वामी जयसेनाचार्य और भी इस बातको विशद करते हैं; वे तात्पर्यवृत्ति में लिखते हैं- "निर्विकारपरमानंदै कस्वभावमात्मसुखमलभमानास्संतो विशेषरागद्वेषरूपा तु या कर्मचेतना तत्सहितं कर्मफलमनुभवति ।" अर्थात् विकार-रहित परमआनंदस्वरूप अद्वितीय स्वभाववाला जो आत्मीय सुख है, उसे नहीं प्राप्त होनेवाले पुरुष विशेष रागद्वेषरूप कर्मचेतना तथा उससहित कर्मके फलका ( कर्मफलचेतनाका ) अनुभव करते हैं । आत्मीयसुखसे रहित मिथ्यादृष्टि जीव ही होता है । सम्यग्दृष्टिको आत्मसुख से रहित नहीं बतलाया गया है । इस कथन से कर्म कर्मफलचेतनाओंका स्वामी सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता, यह बात स्पष्टरीति से सिद्ध हो चुकी ।
[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
समयसारकार स्वामी कुंदकुंद मुनिराज ने चेतनाको दो भेदों में बांटा है, - (१) ज्ञानचेतना, (२) अज्ञानचेतना । अज्ञानचेतनाके उन्होंने दो भेद किए हैं - (१) कर्मचेतना और (२) कर्मफलचेतना । मूलगाथा इसप्रकार है-“वेदतो कम्मफलं अप्पाणं जो दु कुणइ कम्मफलं । सो तं पुणोवि बंधदि
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अर्थात् - सम्यग्दृष्टि गृहस्थ मोक्षमार्ग पर आरूढ़ है, परन्तु मिथ्यादृष्टि मुनि नहीं, इसलिये मिथ्यादृष्टि मुनिसे सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रेष्ट है ।
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