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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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प्रधानता है, वहां कर्मफलचेतना होती है । तथा उक्त कर्मों के उदयसहित जहां इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में रागद्वेषमोहपूर्वक कार्य करनेका उद्योग प्रधान है अर्थात् रागद्वषमोह-विशिष्ट बुद्धिपूर्वक कर्म करनेकी प्रधानता है, वहां कर्मचेतना होती है । इसी बातको स्वामी जयसेनाचार्यने पुष्ट किया है; साथ ही उन्होंने “निर्मलशुद्धात्मानुभूत्यभावोपार्जितप्रकृष्टतरमोहमलीमसेन चेतकभावेन प्रच्छादितसामर्थ्यः" यह विशेषण कर्मचेतना और कर्मफलचेतना दोनोंके लिये दिया है।
स्वामी अमृतचंद्राचार्य और स्वामी जयसेनाचार्यने दोनों चेतनाओं के रूपमें 'मोहमलीमस' विशेषण दिया है। यह शब्द मिथ्यात्वकर्मके उदयमें ही सर्वत्र आता है, चारित्रमोहनीयके उदयके लिये रागद्वषमलीमस' विशेषण दिया जाता है। रागद्वेष और मोह, इनमें मोह शब्दसे मिथ्यात्वका ही ग्रहण है । जैसेकि रत्नकरण्ड श्रावकाचारके इस श्लोकमें किया गया है-"मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः। रागद्वषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥४७॥” अर्थात् मोह (मिथ्यात्व)-रूपी अंधकारके नष्ट हो जानेसे सम्यग्दर्शनके लाभसे जिसको सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति हो गई है, ऐसा साधुपुरुष रागद्वष (चारित्रमोहनीय) की निवृत्तिके लिये चारित्र धारण करता है । श्रीसमयसारमें भी मोह शब्दसे मिथ्यात्वका ही ग्रहण किया गया है; यथा-"जो मोहंतु मुइत्ता" आदि (गाथा १३४) । स्वामी अमृतचन्द्राचार्यने “रागद्वषमोहाः" कहा है, वहां भी मोह शब्दसे मिथ्यात्वका ही ग्रहण है । अन्यथा रागद्वेषका प्रयोग व्यर्थ पड़ता है । अतः प्रकृतमें 'मोहमलीमस' विशेषण सिद्ध करता है कि कर्मफलचेतना और कर्मचेतनाका स्वामी मिथ्यादृष्टि जीव ही होता है, सम्यग्दृष्टि नहीं । सम्यग्दृष्टि तो मोहमलीमस (मोहसहित) न होकर निर्मोह' (मोहरहित)
१. "गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोही नैव मोहवान् । अनगारो, गृहो श्रेयान् निर्मोही मोहिनो
मुनेः ॥ ३३ ॥” ( रत्नकरंडश्रावकाचार)
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