SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय करता है, इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रवृत्त है, इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में रागद्वेष भी करता है, तो उसके कर्मचेतना कर्मफलचेतना में क्यों नहीं हो सकतीं ? केवल ज्ञानचेतना ही क्यों रहती है ? इसका निर्णय नीचे लिखे हेतुओं और प्रमाणोंसे किया जाता है । १२० ] www ११ - कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाओंके स्वरूप कथन से मिथ्यादृष्टि ही उनका स्वामी सिद्ध होता है, सम्यग्दृष्टि नहीं । २- सम्यग्दृष्टिके, लब्धिरूप अवस्था में भी ज्ञानचेतना ही रहती है । ३ वाद्यपदार्थों का उपयोग ज्ञानचेतनामें बाधक नहीं होता । ४- सम्यग्दृष्टिके अभिलाषा, रुचिपूर्वक भोगसेवन नहीं है । ५ - उसकी रागक्रिया बन्धका कारण नहीं है । ६ - उसकी रागक्रिया कमोंदयजनित क्रिया है; वह रागपूर्वक की गई क्रिया नहीं समझी जाती । ७ - सम्यग्दृष्टिके रागभाव भी नहीं है, बंध भी नहीं है, इसलिये उसके कर्मफलचेतना भी नहीं है । ८-उसका भोगसेवन बंधहेतु नहीं किंतु निर्जराका हेतु है । ६ - अशुद्धोपलब्धि सम्यक्त्वके अभाव में ही होती है, उसीमें बंधफल कर्मचेतना, कर्मफल चेतनायें होती हैं । १० सम्य सदा शुद्धोपलब्धि रहती है, इसलिये उसके सदा ज्ञानचेतना ही रहती हैं अब इन दश हेतुओंका सप्रमाण खुलासा नीचे दिया जाता है www कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाका लक्षण पंचास्तिकायकी तत्त्वप्रदीपिका वृत्तिमें श्रीमत्परमपूज्य अमृतचंद्र स्वामीने यह किया है कि "एके हि चेतयितारः प्रकृष्टतरमोहमलीमसेन, प्रकृष्टतरज्ञानावरण- मुद्रितानुभावेन चेतकस्वभावेन प्रकृष्टतरवीर्या तरायावसादितकार्य कारणसामर्थ्याः सुखदुःखस्वरूपं कर्मफलमेव प्राधान्येन चेतयंते । अन्ये तु प्रकृष्टतरमोहमलीमसेनापि प्रकृष्टज्ञानावरणमुद्रितानुभावेन चेतकस्वभावेन मनावीर्या तरायक्षयोपशमासादितकार्य कारणसामर्थ्याः सुखदुःखानुरूपकर्मफलानुभवन संवलितमपि कार्यमेव प्राधान्येन चेतयंते ।” अर्थात् ज्ञानवरण दर्शनावरण वीर्या तराय और मोहनीय कर्मोदयवश सुखदुःखस्वरूप कर्मफलको भोगनेकी जहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy