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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
करता है, इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रवृत्त है, इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में रागद्वेष भी करता है, तो उसके कर्मचेतना कर्मफलचेतना में क्यों नहीं हो सकतीं ? केवल ज्ञानचेतना ही क्यों रहती है ? इसका निर्णय नीचे लिखे हेतुओं और प्रमाणोंसे किया जाता है ।
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११ - कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाओंके स्वरूप कथन से मिथ्यादृष्टि ही उनका स्वामी सिद्ध होता है, सम्यग्दृष्टि नहीं । २- सम्यग्दृष्टिके, लब्धिरूप अवस्था में भी ज्ञानचेतना ही रहती है । ३ वाद्यपदार्थों का उपयोग ज्ञानचेतनामें बाधक नहीं होता । ४- सम्यग्दृष्टिके अभिलाषा, रुचिपूर्वक भोगसेवन नहीं है । ५ - उसकी रागक्रिया बन्धका कारण नहीं है । ६ - उसकी रागक्रिया कमोंदयजनित क्रिया है; वह रागपूर्वक की गई क्रिया नहीं समझी जाती । ७ - सम्यग्दृष्टिके रागभाव भी नहीं है, बंध भी नहीं है, इसलिये उसके कर्मफलचेतना भी नहीं है । ८-उसका भोगसेवन बंधहेतु नहीं किंतु निर्जराका हेतु है । ६ - अशुद्धोपलब्धि सम्यक्त्वके अभाव में ही होती है, उसीमें बंधफल कर्मचेतना, कर्मफल चेतनायें होती हैं । १० सम्य
सदा शुद्धोपलब्धि रहती है, इसलिये उसके सदा ज्ञानचेतना ही रहती हैं अब इन दश हेतुओंका सप्रमाण खुलासा नीचे दिया जाता है
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कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाका लक्षण पंचास्तिकायकी तत्त्वप्रदीपिका वृत्तिमें श्रीमत्परमपूज्य अमृतचंद्र स्वामीने यह किया है कि "एके हि चेतयितारः प्रकृष्टतरमोहमलीमसेन, प्रकृष्टतरज्ञानावरण- मुद्रितानुभावेन चेतकस्वभावेन प्रकृष्टतरवीर्या तरायावसादितकार्य कारणसामर्थ्याः सुखदुःखस्वरूपं कर्मफलमेव प्राधान्येन चेतयंते । अन्ये तु प्रकृष्टतरमोहमलीमसेनापि प्रकृष्टज्ञानावरणमुद्रितानुभावेन चेतकस्वभावेन मनावीर्या तरायक्षयोपशमासादितकार्य कारणसामर्थ्याः सुखदुःखानुरूपकर्मफलानुभवन संवलितमपि कार्यमेव प्राधान्येन चेतयंते ।” अर्थात् ज्ञानवरण दर्शनावरण वीर्या तराय और मोहनीय कर्मोदयवश सुखदुःखस्वरूप कर्मफलको भोगनेकी जहां
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