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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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पर्यायें प्रतिक्षण बदलती रहो, उनसे मेरे स्वरूपका कभी प्रतिघात नहीं हो सकता। लोकमें आयु, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, इन प्राणोंके नाशसे मृत्यु मानी जाती है; परन्तु यह सब पुद्गलकी पुद्गलमें कल्पना है। मेरे तो चेतना ही प्राण है, उसकी कभी मृत्यु हो नहीं सकती। मैं सदा अपने अमूर्त चैतन्य स्वभावमें रहनेवाला हूँ, मेरे ऊपर बिजली आदि मूर्त पदार्थों का क्या असर हो सकता है ? मेरे ऊपर इन सब बातों का कभी कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता । ये सब विचार सम्यग्दृष्टि जीवके सदैव जागृत रहते हैं, इसलिये वह सदा निर्भीक बना रहता है। इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि सदैव भयभीत रहता है, वह चित्तमें निरन्तर व्याकुल एवं कंपायमान रहता है । उसे चिंता रहती है कि मैं जल्दी न मर जाऊं, में मरकर स्वर्ग जाऊं तो अच्छा, कहीं दुर्गतिमें चला गया तो बहुत दुःख उठाना पड़ेगा । मैं सदैव नीरोग बना रहू, मुझे कोई व्याधि न हो जाय, मेरे ऊपर कहीं विजली न गिर जाय, कोई सर्प बिच्छू सिंह आदि भयंकर जीव कहीं खा न लेवें, मैं अब वृद्ध हो चला, कहीं मर न जाऊं !' इत्यादि सभी भय मिथ्यादृष्टिको लगे रहते हैं, इसका कारण यही है कि वह जिन पुद्गलोंसे सम्बन्ध कर रहा है, उन्हींको अपना समझ रहा है; तथा अपने निजस्वरूपका बोध नहीं है। इसीलिये उसके कर्मचेतना और कर्मफलचेतना रहती है । सम्यग्दृष्टिके सदैव ज्ञानचेतना रहती है । क्योंकि मिथ्यादृष्टि मोहमलीमस परिणामोंवाला है, अतएव वह स्वानुभूतिसे च्युत है; और सम्यग्दृष्टि मोहमलीमस परिणामोंसे रहित है । अतएव वह स्वानुभूतिसहित है। स्वानुभूतिसहित जीवोंके ज्ञानचेतना ही होती है, उससे रहित जीवोंके कर्मचेतना और कर्मफलचेतनायें ही होती हैं । जैसे मिथ्यादृष्टिके ज्ञानचेतना कभी नहीं होती, वैसे सम्यग्दृष्टिके कर्मचेतना एवं कर्मफलचेतनायें कभी नहीं होती।
यहांपर शंका हो सकती है कि 'जब सम्यग्दृष्टि जीव भोगसेवन
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