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________________ ११८ ] [ पुरुषार्थ सद्धय पाय कोई संबंध नहीं है, यह जीव नाना गतियोंमें कर्मवश घूमता फिरता है, कर्मों की प्रेरणासे एक दूसरेको साथी समझ लेता है; यह सब कर्मों का फल है, मेरे स्वरूपसे सर्वथा जुदी बात है । सम्यग्दृष्टि आत्माके ऐसे विचारोंके कारण ही, किसीप्रकारका भय उस पर प्रभाव नहीं डाल सकता। वह विचारता है कि मेरा लोक तो चैतन्यलोक है, वह सदा नित्य है; दूसरा मेरा कोई लोक ही नहीं है तो मुझे जन्ममरणका क्या भय ? मैं जब पुदगलसे भिन्न चैतन्यधाममें निवास करनेवाला हूँ तो मुझे कभी कोई व्याधि नहीं हो सकती, ये समस्त व्याधियां शरीरमें होती हैं । शरीर पुद्गल है, मैं अमूर्त हूँ'; मेरे ऊपर उन वेदनाजनित व्याधियोंका क्या प्रभाव हो सकता है ? जैसे लगी हुई अग्नि घरको जला देती है परन्तु घरके आकार प्रतीत होनेवाले आकाशको तो वह नहीं जला सकती, इसीप्रकार शरीरको व्याधियां नष्ट भ्रष्ट कर सकती हैं, आकाशतुल्य अमूर्त आत्मा का तो वे कुछ नहीं कर सकतीं। मेरा आत्मा नित्य सदा रहनेवाला है; अपेक्षासे, दश भेद और भी हैं। और वे इसप्रकार हैं आज्ञामार्गममुद्भवमुपदेशात् सूत्रबीजसंक्षेपात् । . विस्तारार्थाभ्यां भवमवगाढ़परमावगाढ़े च ॥११॥ (आत्मानुशासन ) अर्थ-(१) बीतराग सर्वज्ञदेवके आज्ञारूप वचनोंका श्रद्धान करना आज्ञासम्यक्त्व है । अर्थात् आप्त सर्वज्ञ अर्हतदेवके कथनानुसार रचे गये आचार्यप्रणीत आगम पर श्रद्धान करना 'आज्ञासम्यक्त्व" है। (२) मोहनीयकर्मके शांत होने से परिग्रहादि-रहित कल्याणकारी अविनश्वर रत्नत्रयस्वरूप जो मोक्षमार्ग है, उसका श्रद्धान करना सो मार्गसम्यक्त्व है । अर्थात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप रत्नत्रयसे ही मोक्षको प्राप्ति हो सकती है, ऐसा श्रद्धान करना "मार्गसम्यक्त्व" है । (३) जो तीर्थंकरोंके उपदेशसे प्रगट हुए सम्यग्ज्ञानरूप आगमसमुद्र हैं, उनके तथा गणधर आचार्य श्रुतकेवली आदिक उपदेशसे उत्पन्न हुए सम्यक्त्वको 'उपदेशसम्यक्त्व" कहते हैं। (४) मुनियों के चरण-समीपमें बैठकर आचार सूत्रोंकेविवरण सुननेसे उनपर श्रद्धान होनेसे जो सम्यक्त्व होता है, वह 'सूत्रसम्यक्त्व" है । (५) मोहनीयकर्मके उपशम होनेसे किन्हीं किन्हींको जो कठिन शास्त्रीय रहस्योंके एवं करणवीजोंके मर्मको समझनेसे सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, वह "वीजसम्यक्त्व" कहलाता है। (६) पदार्थो को संक्षेपसे समझ कर उन पर श्रद्धान करने से जो सम्यक्त्व होता है, वह "संक्षेपसम्यक्त्व" है । (७) द्वादशांगवाणीको विस्तारपूर्वक सुनकर उसके समझनेसे जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, वह · विस्तारसम्यक्त्व" है । (८) शास्त्रवचनाके बिना किसी अन्य पदार्थसे उत्पन्न जो सम्यक्त्व है, वह “अर्थसम्यक्त्व” है। (६) अङ्गप्रविष्ट और अङ्गवाह्यरूप श्रु तज्ञानका अवगाहन करनेसे जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है. वह “अवगाढसम्यक्त्व" है। और (१० ) केवलज्ञान उत्पन्न होनेसे जो सहभावी गुणोंको विशुद्धतासे सम्यक्त्वगुणकी परमनिर्मलता होती है, वह “परमावगाढसम्यक्त्व" है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
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