________________
पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
[ ११७
तियोंके उपशमसे होता है, उसे औपशमिकसम्यक्त्व कहते हैं । जो छह प्रकृतियोंके उपशम तथा सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयमें होता है, उसे क्षायोपशमिकसम्यक्त्व कहते हैं । यहांपर इतना विशेष है कि सर्वघाति स्पर्धकोंका उदय, क्षय, सत्तामें उपशम होना तथा केवल देशघातियोंका उदय होना आवश्यक है। सातों प्रकृतियोंके सर्वथा क्षयमें होनेवाले सम्यक्त्वको क्षायिकसम्यक्त्व कहते हैं। तीनों सम्यक्त्वोंके स्वरूपमें कोई अन्तर नहीं है, केवल कर्मों के उदय स्थिति आदिकी विवक्षासे भेद है । जितने अंशमें सम्यक्त्व प्रगट हो गया है, वह तीनों भेदोंमें समान है; क्योंकि सम्यग्दर्शन आत्माका निजरूप है, वह समस्त भेदोंमें आत्मीय परमानंदमय समरसका अनुभव कराता है।
सम्यग्दृष्टिका आत्मा इतना प्रबल एवं निर्भीक हो जाता है कि उसे किसीप्रकारका भय नहीं होता । इसका कारण यही है कि वह सदा यही विचारा करता है कि मैं पुदगलसे सदैव भिन्न एवं अकेला हूं, मैं विकाररहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूँ, ये सब विकार पुद्गलके हैं, तथा शरीर सांसारिक सुख वा दुःख पुत्र पौत्र आदि सब अनित्य हैं, मुझसे इनका
के मिश्रीपशमिकंनाम क्षायिकचेति तत्त्रिधा ।
स्थितिबंधकृतोभेदो न भेदो रसबंधसात् ॥ (पञ्चाध्यायी उत्तराद्ध ६३५) अर्थात् तीनों सम्यक्त्वोंमें स्थितिबंधकृत भेद है; स्थितियां तीनों सम्यक्वोंकी भिन्न भिन्न हैं, परन्तु अनुभागबंधकृत इनमें कोई भेद नहीं है । सभी भेदोंमें आत्माको स्वानुभूत्यात्मक आनन्दका देनेवाला एक ही सम्यक्त्वगुण है । इसीलिये रसोदयजनित कोई भेद उद्भूत-हुए सम्यक्त्वगुणमें नहीं है । इसीका खुलासा नीचे के श्लोकोंसे और भी हो जाता है
स्वार्थकियासमर्थोत्र बंधः स्याद्रससंज्ञकः । शेषबंधत्रिकोप्येष न कार्यकरणक्षमः ॥९३८ ॥ ततः स्थितिवशादेव सन्मात्रेप्यत्र संस्थिते ।
ज्ञानसंचेतनायास्तु क्षतिर्न स्यान्मनागपि ॥ ९३९ ॥ अर्थ-अनुभागबंध ही स्वार्थक्रिया करने में अर्थात् अपना फल देनेमें समर्थ है, शेष तीन बंध कुछ भी गुणोंका विघात नहीं कर सकते । इसलिये तीनों सम्यक्त्वों में स्थितिबंधकी अपेक्षासे सत्तामात्रमें ही भेद है, उससे सम्यग्दर्शनके साथ अविनाभाविनो ज्ञानचेतनामें कोई अन्तर नहीं पड़ता । अर्थात् तीनों सम्यक्त्वोंमें समानता है । उनके उद्भूत रूपमें कुछ भी स्वरूपभेद नहीं है। उक्त तीन प्रकारके सम्यक्त्वके ही, उत्पत्तिकी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org