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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
शास्त्रोंने प्रतिपादन किया है मानना, उनपर ही दृढ़ता रखकर आत्मीय सुधार करना, इसीका नाम आस्तिक्य है । प्रशम, संवेग, अनुकंपा, आस्तिक्य, इन चारोंका नाम भी व्यवहार सम्यक्त्व है । जिनके इंद्रियोंके विषयोंमें लोलुपताके साथ रुचि लगी हुई है, जगत् एवं शरीरसे तीब्र राग लगा हुआ है, जीवोंपर दयाका भाव उत्पन्न ही नहीं होता, तथा आत्मापर, धर्मपर, धर्म के साधक कर्मकांड आदि पर तथा धर्म के फलस्वरूप नरकस्वर्गादि पर श्रद्धान नहीं है, जो आगममें कही गई बातों पर प्रतीति नहीं करते हैं, अपनी कुतर्कणासे आगमके विरुद्ध कल्पनायें करते हैं, उन सबके व्यवहारसम्यक्त्व नहीं है, ऐसे जीव अभद्रोंकी श्रेणी में हैं ।
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व्यवहारसम्यक्त्व निश्चय सम्यक्त्वका साधक है, और निश्चयसम्यक्त्वकी पहचान स्वानुभूतिसे होती है । सम्यक्त्वकी प्राप्ति इस जीवके यदि एकबार भी हो जाय, तो फिर उस जीवकी नियमसे मुक्ति होती है । अर्धपुद्गल-परावर्तन कालमें वह नियमसे मोक्ष चला जाता है । सम्यक्त्वप्राप्ति के लिये जैसे काललब्धि तथा देशनालब्धि वाह्यकारण है, वैसे क्षायोपशमिकीलब्धि, विशुद्धिलब्धि, प्रायोगिकीलब्धि तथा कारणलब्धि ये अंतरंग कारण हैं । इन लब्धियोंमें चार लब्धियां तो भव्य तथा अभव्यके भी हो जाती हैं, परन्तु करणलब्धि केवल 'भव्य के ही होती है । तथा करण - लब्धि होने पर अंतर्मुहूर्तमें नियमसे उस जीवके सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है । सम्यक्त्वके मूल में तीन भेद हैं- ( १ ) और मिकसम्यक्त्व, (२) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, (३) क्षायिकसम्यक्त्व । जो सम्यक्त्व चार अनंतानुबंधि तथा सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यङ मिथ्यात्वप्रकृति और मिथ्यात्वप्रकृति इन सात प्रकृ
'खवसमय विसोही देसणपाउरगकरणलद्वीया,
चारिविसामण्णा करण पुण होदि सम्मत्ते ।' ( गो० जी० ६५१ )
अर्थातू - क्षायोपशमिक, विशुद्धि, देशना, प्रायोगिकी, और करण इन पांच लब्धियोंमें चार सामान्यरीति से भव्य अभव्य सभीके होती है । परन्तु करणलब्धि उसीको होती है, जिस भव्य अन्तर्मुहूर्त में नियमसे सम्यग्दर्शन होता है ।
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