SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ ] [ पुरुषार्थसिद्धय पाय है । इसप्रकार लोक आकारवान होनेसे रचनावाला सिद्ध होता है, रचनावाला सिद्ध होनेसे अंतवाला सिद्ध होता है, अंतवाला सिद्ध होनेसे वह विभागवाला सिद्ध होता है । जहां लोकका अंत होता है ( वहीं लोक अलोकका विभाग, भेद ) सिद्ध होता है । लोकका अंत कहां होता है ? इसका विचार करनेसे विदित होगा कि जहांतक धर्मद्रव्य है, वहांतक लोक है; जहां धर्मद्रव्यकी समाप्ति है, वहीं लोककी समाप्ति है । इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि जीवपुद्गलोंका गमन भी लोकशिखर तक (लोकाकाशके अंततक) ही होता है; क्योंकि वहींतक धर्मद्रव्यद्वारा उन्हें गमनमें सहायता मिलती है। इसलिये जो पदार्थ लोकमें स्थिर हैं वे तो स्थिर हैं ही, परंतु जो गमन करते हैं वे भी लोकके अंततक ही जा सकते हैं, बाहर नहीं। कारण, गमनमें सहायता देनेवाला धर्मद्रव्य लोक तक ही है। इसलिये धर्म, अधर्म, काल, जीव, पुद्गल ये पदार्थ लोकमें ही पाये जाते हैं, बाहर नहीं । लोक के बाहर केवल आकाश अवशिष्ट रहता है; क्योंकि वह अनंत है एवं व्यापक है और द्रव्य जो अनंत भी हैं, वे सर्वत्र व्यापक नहीं हैं । जो अनंत नहीं हैं किंतु एक होतेहुए असंख्यातप्रदेशी हैं अथवा असंख्यात द्रव्यरूप हैं, वे सब असंख्यातप्रदेशीक्षेत्र तक अर्थात् लोक तक रहते हैं। आकाश एक ऐसा द्रव्य है जो अनंतव्यापक होनेसे लोक अलोकमें सर्वत्र रहता है । वास्तवमें आकाशद्रव्य दो नहीं हैं, वह एक ही सर्वत्र है; केवल धर्मद्रव्यके निमित्तले लोकाकाशका विभाग होनेसे वह ( आकाश ) दो टुकड़ोमें विभक्त हो गया है । इस उपयुक्त लोक अलोक विभागसे धर्मद्रव्यकी पूर्ण आवश्यकता सिद्ध हो जाती है । इसलिये पहले १, रचनात्मक होनेसे लोक किसी ईश्वर या परमात्माद्वारा बनाया गया सिद्ध होता है, ऐसा समझना केवल भ्रम है । यह नियम नहीं है जो कि रचनावाले पदार्थ हैं, वे सब किसी चेतनाद्वारा बनाये गये हों। पर्वत, सूर्य, चंद्र, समुद्र, जंगल आदि सभी रचनावाले होनेपर भी स्वयं अपने कारणोंसे ( पुद्गलस्कंधोंसे )बने हुए हैं, उनका बनानेवाला कोई चेतन कर्ता नही है । उसोप्रकार लोक भो अनादिनिधन है; उसका बनानेवाला कोई नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy