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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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जो यह कहा गया है कि जैनधर्मने जैसी व्यवस्था पदार्थों की स्वीकार की है, उसके अनुसार उनकी योजना भी ( कारणकलाप-सामग्री ) संतोषप्रद बतलायी है । अर्थात् जिसप्रकार जीवका ऊर्ध्वगमन स्वभाव मानकर भी उसे लोकके अग्रभागमें ठहरा हुआ बतलाया है, उसीप्रकार ‘आगे क्यों नहीं गमन करता' इसका समाधान भी सकारण एवं सयुक्तिक बतलाया है । जीवका ऊर्ध्वगमन स्वभाव तो माना जाय, परन्तु धर्मद्रव्यकी सहायताका कुछ विचार न किया जाय, तो पदार्थव्यवस्था में कभी संतोष नहीं हो सकता। जैनधर्मने पदार्थका यथार्थ विवेचन किया है; क्योंकि वह सर्वज्ञके द्वारा कहा गया है । इसीलिये जैनधर्ममें ऐसी मिथ्या एवं प्रमाणवाधित व्यवस्था नहीं है कि 'लोककी रचना ईश्वरने की है, लोकको वह बनाता है फिर बिगाड़ देता है। ये सब बातें प्रमाणवाधित हैं । जैनधर्मने जितना पदार्थस्वरूप बतलाया है, वह सकारण सयुक्तिक एवं प्रमाणसिद्ध बतलाया है । धर्मद्रव्य यद्यपि परोक्षपदार्थ है, वह अमूर्तिक होनेसे इंद्रियग्राह्य नहीं है, आगम-प्रमाणसिद्ध है, तो भी युकिसे उसकी सत्ता सिद्ध होती है । वास्तवमें विचार किया जाय तो जैनधर्मके मर्म जाननेवालोंको वस्तुस्वभाव पर संतोष करना होता है। वहीं यह आंशका भी नहीं होती कि 'यह क्या माना गया, इसके बिना भी काम चल जाता ।' ये सम्पूर्ण बातें यद्यपि युनिसे समझा देनेसे संतोष दिलाती हैं, परन्तु मूल संतोष पदार्थस्वरूपसे होता है। धर्मद्रव्य एक स्वतंत्र पदार्थ है, वह गमनमें सहायक होता है; यह एक वस्तुभाव है, उस स्वभावप्राप्त वस्तुस्वरूपके सामने 'यह न होता तो भी काम चल जाता' ये सब बातें व्यर्थ हैं । 'क्यों न होता और कैसे काम चल जाता' इसका भी उन तर्कशालियोंके पास कोई सदुत्तर नहीं है । तर्क तो उपस्थित व्यवस्थामेंसे ही किया जाता है; जबकि जीव पुद्गलमें गमनक्रिया स्वतंत्र देखनेमें आती है और सहायक उदासीनकारण भी आवश्यक साथ लगे हुए हैं (काल आकाश आदि), ऐसी
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