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पुरुषार्थसिद्धपाय ]
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सिद्ध ही पदार्थ माना जा सकता है, अन्यथा नहीं । धर्मद्रव्य क्या युक्तिप्रमाण से उनका साधक है ? और साधक है, तो किस प्रकार ?' उत्तर- लोकअलोक का विभाग नीचे लिखे अनुमानसे मानना ही पड़ता है, -
"लोकालोकविभागोस्ति, लोकस्य सांतत्वात् वनपर्वतादिवत् । लोकः सांतः, रचनात्मकत्वात् गृहादिवत् । लोकः रचनात्मकः आकारवत्त्वात् घटपटादिवत् । यत् खलु विभाग सीमांते पदार्थनियोजक, तद् एव धर्मद्रव्यं तेनैव जीवद्रव्यस्य पुद्गल द्रव्यस्य वा लोकाकाशाद्वहिर्गमनं न संभाव्यत इति विद्भिर्निश्व ेतव्यम् ।" अर्थात् लोक- अलोकका विभाग अवश्य मानना पड़ता है, क्योंकि लोकका अंत है । जिन जिन वस्तुओंका अंत होता है, उनका विभाग अवश्य होता है; जैसे वन, पर्वत, नदी आदिका अंत होता है, जहां उनका अंत है वही उनका विभाग है । इसीप्रकार लोकाकाशका अंत होता है । अंत होनेसे जहां लोकाकाश समाप्त होता है, वहीं अलोकाकाशका प्रारंभ होता है । लोकका अंत होता है, यह बात भी माननी पड़ती है, क्योंकि वह रचनावाला है । जितने रचनावाले पदार्थ होते हैं, वे सब अंतवाले होते हैं; जैसे घर, गांव, शहर आदि रचनावाले पदार्थ हैं, इसलिये इन सबका कहीं न कहीं अंत अवश्य होता है । लोक भी रचनावाला है, ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और पाताललोक में भिन्न भिन्न रचनायें हो रही हैं, रचनात्मक होनेसे उसका अंत अवश्य होता है । लोककी रचना भी देखने में आती है; क्योंकि वह भिन्न भिन्न आकारवाला है । पाताललोक त्रासन ( वेतके बने आसन - मूंड़े ) के समान है, मध्यलोक झल्लरी के समान है, ऊर्ध्वलोक मृदंगके समान आकारवाला है, तीनों लोक कटिप्रदेशमें दोनों हाथोंको रखकर खड़े हुए पुरुषके समान है । जितने पदार्थ आकारविशेषवाले होते हैं, वे सब रचनावाले होते हैं । जैसे, घड़ा, कपड़ा, चौकी आदि पदार्थ आकारविशेषवाले हैं वे सब रचनात्मक हैं, उसीप्रकार लोक भी आकारविशेषवाला है इसलिये वह भी रचनात्मक
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