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[ पुरुषार्थसिद्धय पाय
सहायता जमीन एवं आकाश देता है ?" इस शंकाका उत्तर यह है कि जिसप्रकार आकाशद्रव्य हमारी इंद्रियोंसे नहीं जाना जाता है, वह केवल पोल मात्र है, तथा कालद्रव्य भी इन्द्रियोंसे नहीं जाना जाता है, परन्तु समस्त वस्तुओंको अवकाश मिलनेसे ( ठहरनेका स्थान पा जाने से ) और सब वस्तुओं के स्वयं परिणमन करते रहने पर भी उनमें नवीनता और जीर्णता (पुरानापन ) आनेसे, आकाश और कालद्रव्यको जगत् के प्रायः बहुभाग दार्शनिकोंने स्वीकार किया है । इसीप्रकार जगत् के समस्त जीव पुद्गलों को बिना किसीके धक्के आदिके एकसाथ इधर से उधर चलने फिरने में एक सहायकद्रव्य स्वीकार करना ही पड़ता है । जैसे- पदार्थ स्वयं स्थान ग्रहण करते हैं, परन्तु स्थान मिलना आकाशकी सहायताका फल है । नये पुराने स्वयं पदार्थ होते हैं परन्तु नये पुरानेपन में 'काल' सहायक पड़ जाता है । इसीप्रकार गमन स्वयं पदार्थ करते हैं, उनमें धर्मद्रव्य सहायक हो जाता है । धर्मद्रव्य के मानने में दूसरा हेतु यह है कि जैनसिद्धांत के अनुसार जैसी व्यवस्था पदार्थों की प्रमाणसिद्ध पाई जाती है, वैसे हेतु एवं साधन भी प्रमाणसिद्ध पाये जाते हैं । जैन सिद्धांतने लोकअलोकका विभाग बतलाया हैं और जीवका गमन लोक- शिखर तक ही बतलाया है. आगे नहीं । इसीप्रकार पुद्गलका गमन भी लोक तक ही बतलाया है, आगे नहीं । बाकी कोई द्रव्य तो गमन ही नहीं करते, सदास्थिर ही रहते हैं। लोक- अलोकका विभाग करनेवाला एवं जीव पुदगलको लोक-शिखर तक ही रखनेवाला धर्मद्रव्य ही है । यदि धर्मद्रव्य न माना जाय तो लोक- अलोकका विभाग भी नहीं हो सकता; विभाग होने पर जीव पुद्गलका गमन अलोकाकाशमें भी हो सकता है और वैसी अवस्थामें पदार्थों की कोई व्यवस्था नहीं बन सकती यदि कहा जाय कि 'व्यवस्था बनो या न बनो, लोक- अलोकका विभाग बनो या मत बनो, जीव पुद्गल लोक - शिखर तक ठहरो या आगे चले जाओ; परन्तु युक्तिप्रमाण
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