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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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जैसे फुटबाल ( गेंद ) में धक्का देकर उसे दौड़ाया जाता है, गाड़ियां घोड़ोंकी शक्ति लगनेसे अथवा वाष्प ( वाफ ) या बिजलीकी शक्ति लगने से उनकी प्रेरणासे खींची जाती हैं। यह सहायता प्रेरक सहायता है। धर्मद्रव्य ऐसी सहायता नहीं करता। वह केवल उदासीन कारण है। जीव पुद्गल उसकी प्रेरणासे नहीं चलते किंतु स्वयं चलते हैं। क्रिया करना, उन दोनोंका स्वभाव विभाव है; इसलिये क्रिया उनमें स्वयं होती है । जिससमय क्रिया उनमें होती है, उससमय धर्मद्रव्य उदासीन सहायक हो जाता है। उदासीन सहायक होनेसे कोई उसकी आवश्यकता न समझे, अथवा कल्पित द्रव्य कहने लगे तो उसकी भूल है । बहुतसे कारण उदासीन होते हैं; उदासीन होने पर भी उनके बिना काम नहीं चल सकता । जैसे-मनुष्य या पशुपक्षियोंके चलने में पृथ्वी या आकाश उन्हें सहायता देता है। उनके बिना क्या कभी वे चल-फिर सकते हैं ? कभी नहीं । परन्तु उन मनुष्य पशु पक्षियोंको आकाश और पृथ्वी प्रेरणा तो नहीं करती कि 'तुम चलो' । अथवा गाड़ीमें जुते हुए घोड़ों तथा बिजली आदिके समान प्रेरणा भी चलानेकी नहीं करते । रेलगाड़ी अथवा ट्रामगाड़ी लोहेकी पटरियों पर चलती है; पटरियोंके बिना उन्हें बड़ा भारी शनिवाला एंजिन भी नहीं खींच सकता, क्योंकि गाड़ियां बहुत ही भारी होती हैं, वे जमीनमें खींचनेसे गढ़ जायगी, सुगमतासे आगे नहीं बढ़ सकतीं । परन्तु पटरियों के बिछा देनेसे उनपर वे ढरकती हुई चली जाती हैं; इसलिये पटरियां गाड़ियोंके चलनेमें सहायता देती हैं। सहायता देने पर भी वे उन गाड़ियोंसे चलनेके लिये प्रेरणा नहीं करतीं । जल मछलियों के चलानेमें सहायता देता है, परन्तु उन्हें चलाता नहीं, मछलियां स्वयं चलती हैं । इन्हीं दृष्टातोंके समान धर्मद्रव्य है, वह क्रिया करनेवाले जीव पुद्गलोंको क्रियामें सहायता देता है, परन्तु प्रेरणा नहीं करता । कदाचित् कोई यह शंका करे कि 'धर्मद्रव्य माननेकी आवश्यकता ही क्या है, चलने में
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