________________
१०४ ]
[ पुरुषार्थ सिद्धय पाय
पदार्थों को एक पुद्गलद्रव्यकी ही पर्याय कहता आया है। इसलिये ऊपर कहे हुये सिद्धान्तके अनुसार छुये जानेवाले, गंध देनेवाले, चखे जानेवाले एवं देखे जानेवाले ( रंगवाले ) जितने भी पदार्थ हैं, उन सबको पुद्गलद्रव्य समझना चाहिये।
दूसरा द्रव्य है धर्मद्रव्य । यह द्रव्य उस धर्म से जुदा है जो कि जीवका परिणाम है । जो जीवका परिणाम धर्म है, वह द्रव्य नहीं है किंतु जीवके चरित्रगुणकी पर्याय है। जीवोंको पुण्यरूप फल इसी जीवके परिणाम (धर्मपर्याय ) से मिलता है। परन्तु ऊपर जिस धर्मका उल्लेख किया गया है, वह पर्याय नहीं है किंतु छह द्रव्योंमें एक द्रव्य है। वह जीवका परिणाम नहीं है किंतु अजीव है, जड़ है। जीवका परिणामरूप जो धर्म है वह व्युत्पादित शब्द ( योगज ) है। उसका अर्थ होता है"जो सुखमें धारण करे वह धर्म कहलाता है” । जीवको स्वर्गादिके सुखोंमें धारण करनेवाला जीवका ही शुभ परिणाम है। इसलिए उसीका नाम धर्म है । परन्तु 'धर्म'द्रव्य योगज शब्द नहीं है किंतु रूढ़ि है । एक द्रव्य विशेषकी एक धर्मसंज्ञा नियत है। वह जीवसे सर्वथा भिन्नपदार्थ है। रूप-रस-गंध-स्पर्श उसमें भी नहीं पाये जाते हैं, वह भी अमूर्त हैइन्द्रियोंसे नहीं जाना जाता । वह समस्त लोकमें व्याप्त है । लोकाकाशके असंख्यात प्रदेश हैं उन सबमें उसके प्रदेश व्याप्त हो रहे हैं। परन्तु वह धर्मद्रव्य एक ही द्रव्य है, उसके प्रदेश असंख्यात हैं। द्रव्य असंख्यात नहीं है, द्रव्य एक ही है। उसका कार्य यही है कि जिससमय जीव या पुद्गल चलने लगें उससमय उन्हें चलने में सहायता देना । जब जब जीव पुद्गल कोई क्रिया करेंगे, तभी तभी धर्मद्रव्य उन्हें क्रियामें सहकारी कारण पड़ जायगा। बिना धर्मद्रव्यकी सहायताके कोई द्रव्य हिल भी नहीं सकता । इतना विशेष है कि सहायतायें दो प्रकारकी होती हैं । एक सहायता प्रेरणा करनेवाली होती हैं, दूसरी उदासीन होती है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org