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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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सकता, वैसे विना सम्यक्त्वके ज्ञान चारित्र सम्यक नहीं हो सकते।
यहांपर यह शंका हो सकती है कि 'विना ठीक ठीक ज्ञान हुए श्रद्धान कैसे ठीक कहा जा सकता है ? बिना पहले पदार्थका ज्ञान किये जो श्रद्धा होगी वह अंधश्रद्धा होगी। इसलिये पहले सम्यग्ज्ञान होना चाहिये, पीछे सम्यग्दर्शन होना चाहिये । परन्तु यहांपर पहले सम्यग्दर्शन का होना बतलाया गया है, पीछे सम्यग्ज्ञानका होना बतलाया गया है, सो किसप्रकार ठीक है ?' उत्तर-जबतक आत्मामें दर्शनमोहनीयकर्मका उदय रहता है, तबतक पदार्थों का प्रतिभास विपरीत ही होता है । क्यों विपरीत होता है ? इसका उत्तर यह है कि कर्मकी शक्निका यह प्रभाव है और इसप्रकारकी शकियां माननी ही पड़ती हैं, अन्यथा कहा जा सकता है कि ज्ञान संसारी आत्माओंमें कम क्यों पाया जाता है, पूरा सर्वज्ञज्ञान क्यों नहीं पाया जाता ? इसके उत्तरमें यही बात माननी पड़ेगी कि ज्ञानावरणकर्मका उदय उन आत्माओंमें हो रहा है, उस उदयसे ही ज्ञानशक्ति आच्छादित हो गई है । एक मनुष्य सुखी देखा जाता है, एक दुश्वी देखा जाता है; इसका कारण भी वही कर्मशकिका परिणाम है । इससे सिद्ध होता है कि दर्शनमोहनीयकर्मकी शक्ति ऐसी ही विचित्र है कि उसके उदयमें पदार्थो का विपरीत प्रतिभास होता है । जैसे-दूध भी पुदगलपर्याय है और धतूरा भी पुद्गलपर्याय है, परंतु दूध पीनेसे कुछ विकार नहीं होता, धतूरा खानेसे सब कुछ पीला ही पीला दीखता है, क्योंकि धतूरेके परमाणु विकारोत्पादक हैं, वैसे दूधके नहीं हैं । 'ऐसा भी क्यों है ?' ऐसी आशंकाका यही उत्तर है कि वस्तुस्वभाव अनिवार्य है; वह तर्कणासे बाहर है। अग्नि क्यों उष्ण होती है, विष खानेसे मनुष्य क्यों मर जाता है, इन प्रश्नोंका भी यही उत्तर होगा कि उन वस्तुओंमें वैसी ही शक्रि है । इसीप्रकार दर्शनमोहनीयकर्मके परमाणु इसी जातिके हैं कि उनका रसोदय विपरीत स्वाद करानेवाला ही होता है, अन्यथा सब
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