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[ पृषार्थ सद्धथ पाय
है, चार कार्य है, उसका जो प्रत्यक्ष देखा है। समझका
मनुष्योंके पास समझ रहनेपर भी अनेक विद्वानों तकमें खोटा आचरण क्यों पाया जाता है ? विद्वान नो विवेकी होते हैं, वे ऊंची श्रेणीका ज्ञान रखते हैं, फिर क्यों मिथ्यासिद्धांतों पर विश्वास कर बैठते हैं ? अथवा क्यों असदाचरण करते हैं ? उत्तर में यही कहा जा सकता है कि उनकी समझ उलटी है, उनका चारित्र ठीक नहीं है । समझका उलटा होना और चारित्रका कुचारित्र होना जो प्रत्यक्ष देखनेमें आता है, यह सब दर्शनमोहनीयका कार्य है, उसके निमित्तसे समझ रहने पर भी वह उलटी कहलाती है, चारित्र कुचारित्र कहलाता है । जिससमय दर्शनमोहनीयकर्म हट जाता है अर्थात् जीवके उसका उदय नहीं रहता, उससमय उस जीवका ज्ञान यथार्थ ही होता है; चाहे वह थोड़ा ही क्यों न हो, विपरीतवस्तुका ग्रहण नहीं करेगा। वह थोड़ा जानेगा पर ठीक जानेगा । जैसे-धतूरा पीनेवाले मनुष्य पर जबतक उसका असर रहता है तबतक वह मनुष्य पीला ही पीला देखता है, उसीप्रकार जब तक जीवके दर्शनमोहनीयकर्म का असर रहता है तबतक उसे उलटा ही सूझता है । इसीका नाम 'मोहित बुद्धि' है । यदि कहा जाय कि 'मोहसे पदार्थका प्रतिभास उलटा बना रहे परन्तु ज्ञान तो ठीक ही होना चाहिये अर्थात् श्रद्धान भले ही उलटा हो परन्तु ज्ञान उलटा नहीं होना चाहिये; क्योंकि दर्शनमोह तो श्रद्धानको बिगाड़नेवाला कर्म है, ज्ञानसे उसका क्या संबंध ?' तो हम कहते हैं कि धतूरा खानेवालेको पीला ही पीला दीखता रहे परन्तु उसके ज्ञानमें तो वस्तुओंका प्रतिभास नहीं होना चाहिये; क्योंकि धतूरेका विकार तो आंखोंमें आता है, सो आंखें भले ही पदार्थों को विपरीत देखती हों, देखना तो दर्शनावरणका काम है, उसे देखनेसे ज्ञानका क्या सम्बन्ध ? पदार्थों का ज्ञान तो उसे पीला नहीं होना चाहिये । फिर उसे बोध भी पीला क्यों होता है ? यदि कहा जाय कि 'देखनेका ज्ञानसे संबंध है, जैसा देखता है वैसा ही जानता है' तो यह भी ठीक है कि जैसा श्रद्धान करता
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