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_ [ पुरुषार्थसिद्धय पाय nananananananananananananananananananananananananananananana सम्यग्दर्शनके जितनी क्रियायें हैं, सब मिथ्या हैं देखने में आता है कि कोई कुतप करते हैं, शरीरका शोषण भी करते हैं, परन्तु बिना सम्यग्ज्ञानके उस क्रियासे उल्टा पाप बंध होता है । तप तो कर रहे हैं परन्तु लकड़ियों में जीवोंको जलाकर पापका संचय करते हैं, दिनभर उपवास तो करते हैं परन्तु रात्रिमें अभक्ष्य एवं अनुपसेव्य पदार्थों का सेवन कर पाप कमाते हैं, जंगलमें तो रहते हैं परन्तु आरम्भ परिग्रहका संचय करते जाते हैं, शांति तो चाहते हैं परन्तु बालू पत्थर आदिके ढेर तथा अग्नि आदिमें कूद-कूद कर अशांति एवं कषाय पैदा करते हैं । यह सब खोटा चारित्र अथवा मिथ्याचारित्र है। इस रीतिसे शरीरको कष्ट देनेसे सिवा अहितके कोई हित नहीं हो सकता; कारण बिना पदार्थ-स्वरूप समझे एवं समीचीन मार्गका बोध किये रातदिन भी परिश्रम करनेसे उसका फल विपरीत ही होगा। जो अज्ञानी आतापका सताया हुआ शीतलताकी चाहनासे एक गहरे कूएमें कूद पड़ता है, वह गहरी चोटसे और अथाह जलसे अपने प्राणोंका ही घात कर बैठता है । इसलिये बिना सम्यग्ज्ञानके प्राप्त किये जो कुछ भी कर्तव्य है, वह मिथ्या है । अतएव तीनोंमें पहले सम्यग्दर्शन प्राप्त करना नितांत आवश्यक है । सम्यग्दर्शन नौकाके खेवटियाके समान है । जैसे बिना खेवटियाके नौका नहीं चल सकती, उसीप्रकार बिना सम्यक्त्वके ज्ञान-चारित्रमें सम्यकपना आता ही नहीं । अथवा सम्यग्दर्शन बीजके समान है, जैसे बिना बीजके वृक्षकी स्थिति (उत्पत्ति) भी नहीं हो सकती, वृद्धि भी नहीं हो सकती, फलोदय भी नहीं हो सकता, उसीप्रकार विना सम्यक्त्वके सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्रकी स्थिति (उत्पत्ति) भी नहीं हो सकती वृद्धि भी नहीं सकती तथा उनका उत्तम फल भी नहीं हो सकता । अथवा सम्यग्दर्शन नींवके समान है; जैसे बिना नींवके मकान नहीं ठहर सकता, उसीप्रकार बिना सम्यक्त्वके सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र नहीं ठहर सकते । अथवा सम्यग्दर्शन सूर्यके समान है; जैसे बिना सूर्य के प्रकाश नहीं हो
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