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पुरुषार्थसिद्धय पाय ]
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किया जा सकता है । कारण बिना सम्यक्त्वके, मिथ्याज्ञानसे पदार्थो की यथार्थताका बोध नहीं हो सकता और बिना यथार्थ बोधके समीचीनमार्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती । यही कारण है कि बड़े बड़े विद्वान् दर्शनोंकी रचना कर गये हैं, परंतु किसीने पदार्थका स्वरूप कुछ कहा है और किसीने कुछ । कोई हिंसामें ही धर्म समझ बैठे हैं। जिन देवताओंकी कल्पना करके वे उनकी पूजा करते हैं वह भी जीवहिंसासे करते हैं । क्या देवताओं का वह स्वरूप है अथवा जीववधसे क्या कभी देवता प्रसन्न हो सकते हैं ? कोई कोई अपने कर्तव्योंका फल ईश्वरसे चाहते हैं, कोई झूठा खानेमें धर्म मान बैठे हैं, कोई स्त्रियोंकी पूजामें धर्म समझ रहे हैं, कोई गंगा, जमुना, गोदावरी, कावेरी, नर्मदा आदि नदियोंमें स्नान करनेमें ही धर्म समझ रहे हैं, कोई कहते हैं 'किसकी मोक्ष, किसका नरक और किसका स्वर्ग है ? जो कुछ है सो इसी नरदेहमें है । बाकी कुछ नहीं ।' कोई एक परमात्माको मानकर सब जगत्के पदार्थों का लोप करते हैं, वे प्रत्यक्ष दीखनेवाले समस्त पदार्थों का अपलाप कर रहे हैं । कोई मोक्षसे लौटना बतलाते हैं, कोई मोक्षमें जाकर जीवके ज्ञान दर्शन सुख वीर्य आदि सब गुणोंका नाश बतलाकर उसे जड़ बतलाते हैं । कोई जीवको ही नहीं मानते, तो कोई जीवका मरकर फिर जन्म धारण करना ही नहीं मानते, कोई जीवोंका मरकर एक स्थानमें इकट्ठा होना बतलाते हुये यह भी बतलाते हैं कि 'खुदा या परमेश्वर उनका एक साथ न्याय करके नरक या स्वर्गमें उन्हें यथायोग्य भेजेगा', कोई जीवको तथा प्रकृतिको मानते हुये भी जीवको प्रकृतिसे सर्वथा अलिप्त एवं जीवकी वैभाविक अवस्थाओंका होना प्रकृति-द्वारा ही बतलाते हैं, कोई आत्माको मानते हुये भी उसका नष्ट होना बतलाते हैं, इत्यादि अनेक मतवालोंके उपयुक्त विचार हैं; ये सब अयुक्त, असिद्ध एवं प्रमाण बाधित हैं। किसी प्रकरणमें हम इन सब दर्शनों पर प्रकाश डालेंगे । यह सब सम्यक्त्व-विहीन ज्ञानका-मिथ्याज्ञानका माहात्म्य है। इसी प्रकार बिना
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