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[ पुरुषार्थसिद्धय पार mmmmmmmmmmmmmmmmmmm रहते हैं, ये सब आविष्कार उन्हीं पुदगलस्कंधोंके मिश्रणसे उत्पन्न होते हैं, इप्सलिये पुद्गलतत्त्वकी शनियोंके जाननेवालोंको इन आविष्कारोंसे कोई आश्चर्य नहीं होता । अस्तु. वर्तमानयुगमें बहुभाग ऐसे ही आविष्कार लोगोंको सूझा करते हैं जिनसे कि प्राणियोंका संहार हो । वास्तवमें यह सब कुमति-कुश्रुतका ही प्रभाव है, जिससे कि ऐसी ही कुबुद्धि सूझती है; अन्यथा इतना अधिक ज्ञान प्राप्त होनेपर भी लोगोंके मस्तिष्कमें केवल प्राण संहारक एवं सांसारिक वासनाओंके बढ़ाने वाली बातें ही क्यों सूझती हैं, उन्हें आत्मा-तत्व भी कोई वस्तु है, इस बातका रंचमात्र भी ध्यान क्यों नहीं होता ? अतएव इस वर्तमान पाश्चात्य-विकाशवादको कुमतिज्ञानका विकाश कहा गया है । ऐसे विज्ञानवादियोंका जीवन उन्हीं भौतिक आविष्कारोंकी खोजमें समाप्त हो जाता है, आत्मीय सुख-शांतिकी उन्हें आभा भी नहीं मिल पाती । नरक स्वर्ग क्या हैं, पुण्य-पापसे उनका क्या संबंध है, जीवनकी उज्ज्वलता एवं सारता क्या है, इन बातोंकी ओर उनका ध्यान भी नहीं जाता; इसीलिये उपादेय पदार्थका बोध न होनेसे अथवा विपरीत बोध होनेसे उनमें ज्ञान का आधिक्य होने पर भी सम्यक्त्वका सद्भाव नहीं हैं । परन्तु जहां सम्यक्त्वका सद्भाव है, वहां स्वल्प बोध होने पर भी सम्यग्ज्ञान है-आत्मीयसुखका स्वाद है-स्वानुभावभूतिकी उपलब्धि है। जिस आत्मामें सम्यगदर्शन गुण विद्यमान है, उस आत्माकी रुचि सांसारिक वासनाओंमें न जाकर उपादेय-आत्मीय पदार्थमें जाती है, इसलिये सम्यग्दृष्टि आत्माकी हितमार्गमें ही प्रवृत्ति रहती है । अहितमार्गमें उसकी प्रवृत्ति कभी नहीं जाती । इसलिये ज्ञान एवं चारित्रप्राप्तिसे पहले सम्यक्त्व प्राप्त करना नितांत आवश्यक है। बिना सम्यक्त्व प्राप्त किये बढ़ा-हुआ ज्ञान भी केवल व्याकुलता उत्पन्न करनेवाला है। सम्यक्त्वविहीन ज्ञानसे न तो अपना ही कल्याण हो सकता है और न दूसरे आत्माओंका ही कल्याण
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