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प्रस्तावना : ७९
अतः हम यह कह सकते हैं कि जिस जिस ज्ञानसे वस्तुको जानकर उसमें प्रवृत्त हुए व्यक्तिको अर्थक्रिया (जलावगहनादि) में किंचित् भी विसंवाद (भ्रमादि) नहीं होता वह वह ज्ञान प्रमाण है, जैसे प्रत्यक्ष अथवा अनुमान । और स्मरण तथा प्रत्यभिज्ञानसे वस्तुको जानकर प्रवृत्त हए पुरुषको विसंवाद नहीं होता, इसलिए स्मरण और प्रत्यभिज्ञान दोनों प्रमाण हैं तथा अविशद होनेसे वे परोक्ष हैं। जैसे अनुमान । अथवा साध्य-साधनके सम्बन्ध (व्याप्ति) को ग्रहण करने वाला तर्क ।
तर्क-विमर्श 'जितना धूम है वह सब अग्निसे ही उत्पन्न होता है, बिना अग्निके वह नहीं होता' इस प्रकार समस्त देशों और समस्त कालोंकी व्याप्ति (अविनाभावरूप साध्य तथा साधनके सम्बन्ध) को ग्रहण करनेवाला जो ऊहापोहरूप ज्ञान होता है वह तर्क है और वह भी प्रमाण माना जाना चाहिए, क्योंकि वह भी कथंचित् अपूर्वार्थग्राही है। वह प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण किये गये प्रतिनियत देश और प्रतिनियत कालके साध्य तथा साधन विशेषोंको ग्रहण न करनेके कारण गृहीतग्राही नहीं है। इसके अतिरिक्त उसमें कोई बाधक भी नहीं है। निश्चय ही प्रत्यक्ष तर्कका बाधक नहीं, क्योंकि उसको उसमें प्रवृत्ति ही नहीं, जैसे अनुमान । कदाचित् उसमें उसकी प्रवृत्ति हो भी, तो वह उसका साधक ही होगा, बाधक तो वह किसी भी तरह नहीं हो सकता। कहीं एकाध जगह वह बाधक हो सकता है सो जिसका बाधक होगा वह तर्काभास (अप्रमोण) कहा जायेगा, उसे प्रमाण स्वीकार नहीं किया गया। जिस प्रकार स्मरणाभास, प्रत्यभिज्ञानाभास अथवा प्रत्यक्षाभास, अनुमानाभासको प्रमाण नहीं माना।
तर्कको प्रमाण इसलिए भी मानना आवश्यक है, क्योंकि उससे जाने गये पदार्थ (व्याप्तिसम्बन्ध) में प्रवृत्त ज्ञाताको उसकी अर्थक्रिया में कोई विसंवाद (भ्रमादि) नहीं होता, जैसे प्रत्यक्ष और अनुमान । यह तर्कज्ञान चूँकि अविशद होता है, अतएव वह अनुमानकी तरह परोक्ष है।
अनुमान-विमर्श अब अनुमानका विचार किया जाता है, जिसे चार्वाकको छोड़कर प्रायः सभी दार्शनिकोंने स्वीकार किया है।
साधन (हेतु) से जो साध्य (अनुमेय) का विशेष ज्ञान होता है वह अनुमान है । यहाँ साधन उसे कहा गया है जिसका साध्यके साथ अवि.
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