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________________ ७८ : प्रमाण-परीक्षा ज्ञानका बाधक नहीं है, क्योंकि वह भी प्रत्यभिज्ञानके विषयमें प्रवृत्त नहीं होता, उसकी प्रवृत्ति केवल अनुमेयमें होती है। कदाचित् उसकी प्रत्यभिज्ञानके विषयमें प्रवृत्ति हो, तो वह सर्वथा बाधक नहीं हो सकेगा। अतः प्रत्यभिज्ञान अपने विषय एक द्रव्यमें प्रमाण है, क्योंकि कोई भी उसका बाधक नहीं है, जैसे प्रत्यक्ष अथवा स्मृति । इसी तरह सादृश्यविषयक प्रत्यभिज्ञान भी प्रमाण है, क्योंकि वह भी अपने विषयमें बाधकोंसे रहित है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष अपने विषय साक्षात् हो रहे पदार्थमें बाधाओंसे रहित है तथा स्मरण भी अपने अतीत विषयमें बाधारहित है उसीप्रकार प्रत्यभिज्ञान भी अपने विषय एकत्व अथवा सादृश्यमें बाधाओंकी संभावनासे रहित है। तब उसे अप्रमाण कैसे मानें। हाँ, जो प्रत्यभिज्ञान अपने विषयमें बाधित होता है वह प्रत्यभिज्ञानाभास है। जैसे प्रत्यक्षाभास अथवा स्मरणाभास और इसे अप्रमाण होनेपर सभी प्रत्यभिज्ञानोंको अप्रमाण कहना उचित नहीं है । अन्यथा प्रत्यक्ष भी अप्रमाण हो जावेगा। इसलिए जिस प्रकार शक्ल शंखमें होनेवाला पीतज्ञानप्रत्यक्ष शुक्ल शंखमें ही हुए शुक्लज्ञानप्रत्यक्षके द्वारा बाधित होनेसे अप्रमाण है, किन्तु पीले सुवर्णादिमें होनेवाला पीतज्ञानप्रत्यक्ष अप्रमाण नहीं है। इसी प्रकार अपने उसी पुत्रमें ही 'यह उसके समान है', इस प्रकारका होनेवाला सादृश्यविषयक प्रत्यभिज्ञान 'वही यह है' इस प्रकारके एकत्वविषयक प्रत्यभिज्ञानसे बाधित होनेसे अप्रमाण है, किन्तु अपने पुत्रके समान ही किसी दूसरेके पुत्रमें 'वैसा ही यह है' इसप्रकारका होनेवाला प्रत्यभिज्ञान अप्रमाण नहीं है, क्योंकि वह किसी अन्य ज्ञानसे बाधित नहीं है। इसी तरह जिन नख, केश आदिको काट दिया, किन्तु पुनः वे उत्पन्न हो गये हैं उनमें 'वही ये नख, केश आदि हैं इसप्रकारका होनेवाला एकत्वविषयक प्रत्यभिज्ञान 'पुनः उत्पन्न ये नख, केश आदि पूर्वमें काटे गये नख, केश आदिके समान हैं' इस प्रकारके सादृश्यनिमित्तक अन्य प्रत्यभिज्ञानसे बाधित होने से अप्रमाण स्पष्ट ज्ञात होता है। किन्तु उनमें होनेवाला सादृश्यविषयक प्रत्यभिज्ञान अप्रमाण नहीं है, क्योंकि उसमें कोई बाधा न होनेसे वह प्रमाण ही सिद्ध होता है। इसी प्रकार पहले किसी देश-विशेषमें रखे रूपसे देखे गये चाँदी आदि पदार्थमें हुआ स्मरण अन्य देशमें रखे रूपसे होनेवाले चाँदी आदिके स्मरणका बाधक है अतएव वह उस विषयमें प्रमाण नहीं है। किन्तु जिस देशमें रखे रूपसे चांदी आदिका अनुभव हुआ था, उसी देशमें रखे रूपसे चाँदी आदिका होनेवाला स्मरण प्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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