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प्रस्तावना : ७७
जदा ही है। उसका अपलाप करनेपर कहीं भी एकत्वान्वयकी व्यवस्था नहीं हो सकेगी, यहाँ तक कि पूर्वोत्तर क्षणोंमें रहनेवाले सन्तानकी एकता भी सिद्ध नहीं हो सकेगी। ___ शंका-प्रत्यभिज्ञान गृहीत अर्थको ही ग्रहण करता है, अतः गृहीतग्राही होनेसे अप्रमाण है ?
समाधान-यह शंका भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह कथंचित् अपूर्वार्थ (अगृहीत अर्थ) को जानता है। प्रकट है कि प्रत्यभिज्ञानका विषय जो एक द्रव्य है वह न स्मरण द्वारा गृहीत होता है और न प्रत्यक्ष द्वारा । तब एक द्रव्यको विषय करनेवाला प्रत्यभिज्ञान गृहीतग्राही कैसे माना जा सकता है। अर्थात् नहीं माना जा सकता। स्मरण द्वारा गहीत अतीत पर्याय और प्रत्यक्ष द्वारा अवगत वर्तमान पर्याय इन दोनोंसे द्रव्यका तादात्म्य है, अतः उसे ग्रहण करनेवाले प्रत्यभिज्ञानको कथंचित् अपूर्वार्थविषयक होनेसे अप्रमाण नहीं कहा जा सकता। अन्यथा अनुमान आदि भी अप्रमाण कहे जावेंगे, क्योंकि वे भी सर्वथा अपूर्वार्थविषयक सिद्ध नहीं होते । सम्बन्ध (व्याप्ति) ग्राही ज्ञानके विषय साध्यादि सामान्यसे अनुमानगम्य देशविशिष्ट अथवा कालविशिष्ट साध्यादि विशेष कथंचित् अभिन्न हैं और उन्हें विषय करनेसे अनुमान भी कथंचित् पूर्वार्थविषयक सिद्ध होता है । अत: जिस प्रकार अनुमान कथंचित् अपूर्वार्थग्राही होनेसे प्रमाण है उसी प्रकार प्रत्यभिज्ञान भी कथंचित् अपूर्वार्थग्राहक होनेसे प्रमाण है।
शंका-बाधक प्रमाण मौजूद होनेसे प्रत्यभिज्ञानको प्रमाण नहीं माना जा सकता ?
समाधान—यह शंका अयुक्त है, क्योंकि प्रत्यभिज्ञानका बाधक कोई प्रमाण नहीं है । न प्रत्यक्ष उसका बाधक है, क्योंकि उसकी उसके विषय (एक द्रव्य) में प्रवृत्ति नहीं है । तब वह साधककी तरह बाधक भी नहीं हो सकता । इसे यों समझना चाहिए-जिसकी जिसमें प्रवृत्ति नहीं है वह उसका न साधक होता है और न बाधक, जैसे रसज्ञान रूपज्ञानका न साधक है और न बाधक । और प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञानके विषयमें प्रवृत्त नहीं होता, इसलिए वह उसका बाधक नहीं है। निश्चय ही प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञानके विषय पूर्वदृष्ट और वर्तमानमें देखी जा रही इन दोनों पर्यायोंमें व्याप्त द्रव्यमें प्रवृत्त नहीं होता, वह तो मात्र दृश्यमान पर्यायको ही विषय करता है । अतः हेतु असिद्ध नहीं है। इसी प्रकार अनुमान भी प्रत्यभि
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