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प्रस्तावना : ७५
यह भी संक्षेप में दो प्रकारका है- १. मतिज्ञान और २. श्रुतज्ञान । सूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छका भी वचन है- 'आद्य परोक्षम् ' [ त० सू० १- ११ ] – आदि दो ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं । सूत्रकारने मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान कहे हैं । अतः उनके इस सूत्र ( त० सू० १ - ९ ) की अपेक्षासे 'आद्ये' पदके द्वारा मति और श्रुत ये दो ज्ञान गृहीत हैं । ये दोनों ज्ञान परकी अपेक्षासे होने के कारण परोक्ष कहे गये हैं । और परकी अपेक्षासे न होनेके कारण अवधि, मनः पर्यय और केवल ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष बतलाये हैं |
यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि अवग्रहसे लेकर धारणा पर्यन्त मतिज्ञानको एकदेश विशद होनेसे इन्द्रियप्रत्यक्ष - अनिन्द्रियप्रत्यक्ष कहा गया है और यहाँ उसे परोक्ष बतलाया गया है, यह विसंगति (विरोध) कैसे दूर होगी ? यह प्रश्न युक्त नहीं है, क्योंकि उसे सांव्यवहारिक अर्थात् उपचार (लोकव्यवहार) से प्रत्यक्ष कहा है । वस्तुतः वह परापेक्ष होनेसे परोक्ष ही है, इसमें कोई विरोध समुपस्थित नहीं होता ।
शेष मतिज्ञान, जो स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधरूप है, और श्रुत ये सब परोक्ष हैं । अकलंकदेवने स्पष्ट कहा है
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'विशद ज्ञान प्रत्यक्ष है और वह मुख्य तथा संव्यवहारकी अपेक्षा दो प्रकारका है । शेष स्मृति आदि जितने भी परापेक्ष ज्ञान हैं वे सब परोक्ष हैं । इसी भावको सूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छने ' प्रमाणे' [ 'तत्प्रमाणे'त० सू० १-१० ] इस सूत्रगत द्विवचनात्मक 'प्रमाण' पदके द्वारा सभी ज्ञानों का संग्रह किया है । – लघीय०, १-३ ।
स्मृति-विमर्श
'वह' इस प्रकारके आकारको स्पर्श करनेवाली तथा अनुभूत पदार्थ - को जाननेवाली प्रतीतिका नाम स्मृति है ।
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शंका- मनःपूर्वक होनेसे स्मृति अनिन्द्रियप्रत्यक्ष है, क्योंकि वह सुखादिसंवेदन की तरह विशद है ?
समाधान - यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि स्मृति में विशदता लेशमात्र भी नहीं है । पुनः पुनः भावना (चिन्तन) करनेवालेको विशदताकी प्रतीति होती है, क्योंकि वह भावना ज्ञानात्मक है । परन्तु वह स्वप्नज्ञानकी तरह भ्रान्त है । वास्तवमें जो पूर्वानुभूत अतीत पदार्थ है उसमें विशदता सम्भव ही नहीं, तब उस अतीत अर्थको विषय करनेवाली स्मृति विशद कैसे हो सकती है, अतः वह परोक्ष ही है ।
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