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________________ ७४ : प्रमाण-परीक्षा केवलज्ञान-विमर्श __ तीसरा अतीन्द्रियप्रत्यक्ष केवलज्ञान है, जिसे सकलप्रत्यक्ष कहा जाता है, क्योंकि वह समस्त मोहनीय, समस्त ज्ञानावरण और समस्त वीर्यान्तरायकर्मके क्षयसे उद्भूत होता है। दूसरी बात यह है कि वह सम्पूर्णतया विशद होता है और तीसरे यह कि वह सब (मतिक-अतिक) को विषय करता है। इस प्रकारके प्रत्यक्षवाला कोई विशेष पुरुष सम्भव है ही, क्योंकि उसमें किसी प्रकारका बाधक प्रमाण नहीं है। जिस प्रकार कोई विशेष पुरुष शास्त्र (वेद) द्वारा समस्त पदार्थों का ज्ञान कर सकता है और जिसे दोनों वादी तथा प्रतिवादी स्वीकार करते हैं। हेतु भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि सकल अतीन्द्रिय प्रत्यक्षवाले पुरुषका प्रत्यक्ष आदि कोई भी प्रमाण बाधक नहीं है, यह इसलिए भी कि समस्त देशों और समस्त कालोंके पुरुषसमूहकी अपेक्षा उसमें अबाधा सिद्ध है। जैसे 'मैं सूखी हूँ', 'मैं ज्ञानवान् हूँ' इस प्रतीतिमें किसी भी व्यक्तिको विवाद नहीं हो सकता और इसलिए सुखादिका सद्भाव प्रमाण सिद्ध है। बाधकप्रमाणाभाव वस्तकी सिद्धिमें एक ऐसा स्वयं प्रमाण है. जिसे सभी स्वीकार करते हैं, अन्यथा किसीके भी अभीष्ट तत्त्वकी सिद्धि न हो सकेगी। इस प्रकार प्रत्यक्षका, जो विशदज्ञानरूप होता है और जिसके सांव्यवहारिक और मुख्य ये दो भेद हैं, संक्षेपमें निरूपण किया। परोक्षका विशेष विमर्श परोक्षका पहले संक्षेपमें विचार कर आये हैं। अब उसका कुछ विस्तारसे विचार किया जाता है। जो अविशद (अस्पष्ट) ज्ञान है वह परोक्ष है। इसे अनुमानप्रयोगके माध्यमसे यों भी कह सकते हैं कि परोक्ष अविशद ज्ञानरूप है, क्योंकि वह परोक्ष है। जो अविशद ज्ञानरूप नहीं है वह परोक्ष नहीं है, जैसे अतीन्द्रियप्रत्यक्ष, और परोक्ष विचारणीय ज्ञान है, इसलिए वह अविशद ज्ञानरूप है। जिसका विचार प्रस्तुत है उसकी परोक्षता असिद्ध नहीं है, क्योंकि वह अक्षों अर्थात् इन्द्रियों (बाह्य और आन्तर दोनों) से उत्पन्न होता है। तत्त्वार्थवात्तिककार अकलङ्कदेवने परोक्षका लक्षण करते हुए कहा है कि जो उपात्त तथा अनुपात्त कारणोंकी अपेक्षासे होता है वह परोक्ष है। यहाँ उपात्तसे तात्पर्य कर्मोदयसे आत्माके द्वारा गृहीत स्पर्शनादि इन्द्रियोंकी विवक्षासे है और अनुपात्तसे मतलब शब्द, लिङ्ग आदि बाह्य सहकारियोंसे है। इस तरह दोनों कारणोंकी अपेक्षासे होनेवाला ज्ञान परोक्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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