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प्रस्तावना : ७३
ज्ञानकी अपेक्षासे कहा गया है, क्योंकि परमावधिज्ञानी दूसरी पर्यायमें जाये या केवलज्ञान प्राप्त कर ले, तो उसका वह परमावधिज्ञान छूट जाता हैं। इस प्रकार इस अवधिज्ञानमें वर्तमान पर्यायकी अपेक्षासे अनुगामी, वर्धमान और अवस्थित ये तीन ही भेद पाये जाते हैं, अन्य तीन भेद नहीं। तथा पर्यायान्तरकी अपेक्षासे अननुगामी और अनवस्थित ये दो भेद और एक सप्रतिपात भेद होते हैं। परमावधिज्ञानकी तरह सर्वावधिज्ञानके विषयमें भी जान लेना चाहिए। केवल वह वर्धमान भी नहीं होता, क्योंकि वह जब उत्पन्न होता है तो पूर्ण प्रकर्षको प्राप्त होता है। अतः उसमें वर्धमानता नहीं है। दूसरी उसकी विशेषता यह है कि वह सम्पूर्ण अवधिज्ञानावरण तथा वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमसे उद्भत होता है। अतिसंक्षेपमें अवधिज्ञान दो प्रकारका है--१. भवप्रत्यय और २. गुणप्रत्यय । भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों और नारकियोंके होता है, क्योंकि वह बाह्य देव भव और नारकी भवके निमित्तसे होता है। इन पर्यायोंके होनेपर ही वह होता है और उनके अभावमें नहीं होता । अतः ऐसे अवधिज्ञानको भवनिमित्तक अवधिज्ञान कहा गया है। यह केवल देशावधिरूप ही होता है, परमावधि या सर्वावधिरूप नहीं। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान असंयतसम्यग्दृष्टिके सम्यग्दर्शनगुणके निमित्तसे और संयतासंयतके संयमासंयम (देशसंयम) गुणपूर्वक तथा संयतके संयमगुणके होनेसे होता है। यह दोनों अवधिज्ञानोंके बाह्य निमित्तोंका कथन हैं। उनका अन्तरंग कारण अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तरायकर्मका यथासम्भव क्षयोपशम है। उसके सद्भावमें ही सम्यग्दर्शनादिके होने पर होता है, अन्यथा नहीं।
मनःपर्ययज्ञान-विमर्श मनःपर्ययज्ञान, जो विकल अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है, दो तरहका है-- १. ऋजुमति और २. विपूलमति । इनमें ऋजुमति सरल मन, सरल वाणी और सरल कायवालोंके मनोगत विषयको जानता है, अतः उसके सरल मन, सरल वाणी और सरल कायके निमित्तसे तीन भेद कहे गये हैं। किन्तु विपुलमति मनःपर्ययज्ञान सरल अथवा वक्र दोनों हो प्रकारके मन, वचन
और कायवालोंके मनःस्थित चिन्तित, अर्धचिन्तित और अचिन्तित विषयको ऋजमतिसे भी अधिक स्पष्ट जानता है । अतएव उसके उक्त छह निमित्तोंकी अपेक्षा छह भेद बतलाये गये हैं। यह दोनों ही प्रकारका मनःपर्ययज्ञान यथाविध मनःपर्ययज्ञानावरण और वीर्यान्तरायकर्मके यथायोग्य क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है और संयमियोंके होता है।
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