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७२ : प्रमाण-परीक्षा छोड़कर शेष चार इन्द्रियोंसे होनेके कारण) ४८ भेदोंसे सहित होता है और इस प्रकार इन्द्रियप्रत्यक्षके ४४ १२४ ५ = २४० + १x१२४४ = ४८ = २८८ भेद हैं। तथा अनिन्द्रियप्रत्यक्षके ४४ १२४ १ = ४८ भेदोंको भी उनमें मिला देनेपर सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष (मतिज्ञान) के कुल भेद २८८ + ४८ = ३३६ हैं।
३. अतीन्द्रियप्रत्यक्ष-विमर्श अतीन्द्रियप्रत्यक्षके पहले विकल और सकल ये दो भेद कहे जा चुके हैं। अब उनका विशेष कथन किया जाता है। विकल अतीन्द्रियप्रत्यक्षका पहला भेद अवधिज्ञान है । यह ज्ञान इन्द्रिय और मनकी अपेक्षाके विना केवल आत्मामात्रकी अपेक्षासे होता है और मूर्तिक पदार्थों को ही विषय करता है । तथा अपने विषयमें पूर्ण विशद होता है । इसके छह भेद हैं१. अनुगामी, २. अननुगामी, ३. वर्धमान, ४. हीयमान, ५. अवस्थित और ६. अनवस्थित । जो अवधिज्ञान सूर्यके प्रकाशकी तरह स्वामीके साथ एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें और एक पर्यायसे दूसरी पर्यायमें जाता है वह अनुगामी है। जो अवधिज्ञान विमुख पूरुषको दी गई आज्ञाकी तरह वहीं छूट जाता है, न क्षेत्रान्तरमें जाता है और न पर्यायान्तरमें, वह अननुगामी है। जो जंगलके वाँसोंकी रगड़से उत्पन्न अग्निकी भाँति निरन्तर बढ़ता जाता है वह वर्धमान है। जो अवधिज्ञान सीमित ईंधनवाली अग्निकी शिखाकी तरह धीरे-धीरे कम होता जाता हैं वह हीयमान है। जो शरीरके मसा, तिल आदि चिन्होंकी तरह हमेशा एक-सा बना रहता है वह अवस्थित है और जो हवाके वेगसे प्रेरित जलकी लहरोंकी तरह घटता-बढ़ता रहता है वह अनवस्थित है। संक्षेपमें यह अवधिज्ञान तीन ही प्रकारका है--१. देशावधि, २. परमावधि और ३. सर्वावधि । देशावधिज्ञान उक्त छहों प्रकारको होता है। अर्थात् उसमें अनुगामी आदि छहों भेद पाये जाते हैं। परन्तु परमावधिज्ञान विशिष्ट संयमके धारकोंके होता है। पर्यायान्तरमें न जाने की अपेक्षासे अननुगामी और प्रतिपात (छूट जाने) से सहित होता है और उसी पर्याय में क्षेत्रसे क्षेत्रान्तरमें जानेकी अपेक्षा अनुगामी ही होता है, अननुगामी नहीं, क्योंकि केवलज्ञान होने एवं पर्यायके अन्त तक वह स्वामीके साथ रहता है। तथा वह वर्धमान ही होता है, हीयमान नहीं। अवस्थित ही होता है, अनवस्थित नहीं। अप्रतिपात ही होता है, सप्रतिपात नहीं, क्योंकि वह अत्यन्त विशुद्ध परिणामोंसे उत्पन्न होता है। यह उसी पर्याय या केवल
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