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प्रस्तावना : ७१
(मन) पूर्वक होता है। भ्रमात्मक ज्ञानोंका स्वरूपसंवेदन भी भ्रमात्मकज्ञानस्वरूप है, यह भी समझ लेना चाहिए। अतएव सारे ज्ञान स्वरूपसंवेदनकी अपेक्षा प्रमाण हैं, बाह्य प्रमेयकी अपेक्षासे ही वे प्रमाण और प्रमाणाभास कहे जाते हैं। स्वरूपको जाननेकी अपेक्षासे कोई ज्ञान प्रमाणाभास नहीं है।--२-९३ ।
१. इन्द्रियप्रत्यक्ष तथा २. अनिन्द्रियप्रत्यक्ष-विमर्श प्रश्न-इन्द्रियप्रत्यक्ष किसे कहते हैं ?
उत्तर-इन्द्रियोंकी प्रधानता और मनकी गौणतासे उत्पन्न हए ज्ञानको, जिसे मतिज्ञान कहा जाता है, इन्द्रियप्रत्यक्ष कहते हैं । आचार्य गद्धपिच्छने तत्त्वार्थसूत्र (१-१४) में प्रतिपादन भी किया है कि जो इन्द्रिय
और अनिन्द्रियपूर्वक होता है वह मतिज्ञान है । ___ यह इन्द्रियप्रत्यक्ष चार प्रकारका है-१. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवार और ४. धारणा। पदार्थ और इन्द्रियोंके सम्बन्ध होनेके बाद उत्पन्न हुए आद्य ज्ञानका नाम अवग्रह है । अर्थात् 'क्या है' इस प्रकारके विशेष रहित वस्तके सामान्यावलोकनरूप दर्शनपूर्वक उत्पन्न हुआ कुछ रूप, आकार आदिकी विशेषताओंको लिए हुए पदार्थका विशिष्टज्ञान अवग्रहज्ञान है । अवग्रहज्ञानसे ग्रहण की गयी वस्तुके विषयमें विशेष जाननेकी आकांक्षा करना ईहा है, जिसमें होना चाहिए' रूप ज्ञान होता है। ईहाज्ञानसे जानी हई वस्तुके विशेषोंका निश्चय करना अवायज्ञान है। सुनिश्चित तथा कालान्तर में भी अविस्मृतिके कारणभूत ज्ञानका नाम धारणाज्ञान है। ये चारों ही ज्ञान इन्द्रियव्यापारपूर्वक होते हैं, उसके अभावमें वे उत्पन्न नहीं होते। ये चारों ज्ञान मनपूर्वक भी होते हैं, क्योंकि जिनके मन नहीं होता उनके ये मनपूर्वक होनेवाले चारों ज्ञान नहीं होते । अतएव ये इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष दोनों एकदेशसे विशद और अविसंवादी हैं। स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियोंके निमित्तसे बह, एक, बहविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिःसृत, निःसृत, उक्त, अनुक्त, ध्रुव और अध्रुव इन बारह प्रकारके पदार्थों में होनेके कारण इन्द्रियप्रत्यक्ष प्रत्येक इन्द्रियकी अपेक्षासे ४८, ४८ भेदों तथा व्यंजनावग्रहके (चक्षुः और मनको
१. भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभास-निह्नवः । बहिःप्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते ॥
--आ० समन्तभद्र, आप्तमी० का० ८३ ।
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