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________________ ७० : प्रमाण-परीक्षा का है-१. अवधिज्ञान और २. मनःपर्ययज्ञान । सकलप्रत्यक्ष केवल एक ही प्रकारका है और वह है केवलज्ञान । ये तीनों प्रत्यक्ष मुख्य प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि इन तीनोंमें ही न मनकी और न इन्द्रियोंकी अपेक्षा होती है। इसके अलावा ये तीनों व्यभिचाररहित होते हैं-मिथ्या (संशयादिरूप) नहीं होते। इसके अतिरिक्त साकार वस्तु ग्राही (सविकल्पक) होते हैं और अपने विषयों (ज्ञातव्य पदार्थों-मूर्तिक-अमूर्तिकों) में पूर्णतया विशद(स्पष्ट) होते हैं । यही तत्त्वार्थवात्तिककार अकलङ्कदेवने कहा है-- 'इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षम्' -त० वा० १-१२ । 'जो ज्ञान इन्द्रियों तथा मनकी सहायतासे उत्पन्न नहीं होता, निर्दोष है और साकार वस्तु ग्राही है वह प्रत्यक्ष है ।' आगे उक्त वात्तिकके पदोंकी सार्थकता दिखाते हुए कहा गया है कि 'इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षम्'--'इन्द्रिय और मनकी अपेक्षासे रहित इस पदसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्षकी, जो इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्षके भेदसे दो प्रकारका है तथा एकांशसे विशद होता है, व्यावृत्ति की है। 'अतीतव्यभिचारम् --- 'व्यभिचाररहित' पदसे विभंगज्ञानकी, जो अवधिप्रत्यक्षाभास है, निवृत्ति की है और 'साकारग्रहणम्'-'साकार वस्तु ग्राही' विशेषणसे निराकार ग्रहणका, जिसे दर्शन कहा है, व्यवच्छेद किया है और इस तरह वात्तिकगत तीनों विशेषण सार्थक हैं। अतः जो मुख्यप्रत्यक्ष तीन प्रकारका कहा है वह ठीक है ।-२-९२ । शंका-स्वसंवेदन नामका एक चौथा भी प्रत्यक्ष है, उसे भी कहना चाहिए? समाधान-नहीं, क्योंकि वह सभी ज्ञानोंका सामान्य स्वरूप है। इन्द्रियप्रत्यक्षका स्वरूपसंवेदन इन्द्रियप्रत्यक्ष ही है, अन्यथा वह अपना और पर (बाह्य) का संवेदन नहीं कर सकेगा। दूसरे, उसमें दो संवेदन मानना पड़ेंगे । एक स्वको जाननेवाला और दूसरा बाह्यको । अनिन्द्रियप्रत्यक्षका, जिसे मानसप्रत्यक्ष कहा जाता है और जो सुखादिज्ञानरूप है, स्वरूपसंवेदन भी उक्त प्रकारसे अनिन्द्रियप्रत्यक्ष ही है, वह उससे पृथक नहीं है। इसी तरह तीनों अतीन्द्रियप्रत्यक्षोंका स्वरूपसंवेदन भी तीनों अतीन्द्रियप्रत्यक्षरूप ही है, उनसे जुदा नहीं। अतः स्वरूपसंवेदन नामका चौथा कोई प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं होता। इस विवेचनसे श्रुतज्ञानका स्वरूपसंवेदन अनिन्द्रियप्रत्यक्ष जानना चाहिए, क्योंकि वह (श्रुतज्ञान) अनिन्द्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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