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प्रस्तावना : ६९
समाधान - यह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो 'प्रत्यक्षत्व' हेतु भी निर्दोष माना जायगा और हेतुको अन्वयी होना अनावश्यक कहा जायगा, क्योंकि दोनों में कोई फरक नहीं है । दोनों की स्थिति एक-सी है । वास्तवमें अनन्वय कोई दोष नहीं है, हेतुको अपने साध्यके साथ व्याप्त ( अविनाभावी ) होना ही आवश्यक है । यही कारण है कि केवलव्यतिरेकी हेतुओं में भी अविनाभावमात्रके निश्चयसे साध्यको सिद्ध करनेकी सामर्थ्य मानी गयी है । अतः अनन्वय नामका कोई दोष नहीं है । अतएव 'प्रत्यक्षत्व' हेतु निर्दोष है और वह अपने साध्य विशदज्ञानपनाको प्रत्यक्ष ( पक्ष ) में सिद्ध करता है ।
यह विशदज्ञानपनारूप साध्य असम्भव भी नहीं है, क्योंकि आत्माको लेकर उत्पन्न हुए ज्ञानमें, जिसे प्रत्यक्ष कहा जाता है और पदार्थोंका साक्षात्कर्ता है, सम्पूर्णतया अथवा एकांशसे विशदता रहती है, उसके रहने में कोई बाधा नहीं है । तात्पर्य यह कि आत्ममात्रकी अपेक्षा लेकर उत्पन्न हुआ सकलप्रत्यक्ष ( केवलज्ञान ) और विकलप्रत्यक्ष ( अवधि तथा मन:पर्ययज्ञान ) ये सभी ज्ञान विशद होते हैं । अतः यह कहा ही नहीं जा सकता कि विशदज्ञान होता ही नहीं । उसकी सयुक्तिक सिद्धि आगे विस्तारपूर्वक की गयी है । प्रत्यक्षशब्दकी जो व्युत्पत्ति है उससे भी प्रत्यक्षज्ञान विशदात्मक सिद्ध है । 'प्रत्यक्ष' पदमें दो शब्द हैं—एक प्रति और दूसरा अक्ष | 'अक्ष' का अर्थ अक्षण - व्यापन -जानन करनेसे आत्मा है और उस ही क्षीणावरण अथवा क्षीणोपशान्तावरण आत्माको लेकर उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्षशब्दका वाच्य है, तब ऐसे ज्ञानमें विशदताकी असम्भवता कैसे कही जा सकती है । अतः ठीक ही कहा गया है कि जो ज्ञान विशद है वह प्रत्यक्ष है ।
अब प्रत्यक्ष भेदोंका कथन किया जाता है ।
उक्त प्रत्यक्ष तीन प्रकारका है - १. इन्द्रियप्रत्यक्ष, २. अनिन्द्रियप्रत्यक्ष और ३. अतीन्द्रियप्रत्यक्ष । इनमें इन्द्रियप्रत्यक्षको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है, क्योंकि वह एकदेश ही विशद होता है, पूर्णतया नहीं । इन्द्रियप्रत्यक्षकी तरह अनिन्द्रियप्रत्यक्ष भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना गया है, क्योंकि वह भी उसी तरह एकदेश ही विशद होता है । अन्तर इतना ही है कि अनिन्द्रियप्रत्यक्ष अन्तर्मुखाकाररूपसे होता है और इन्द्रियप्रत्यक्ष बहिर्मुखाकाररूपसे । अतीन्द्रियप्रत्यक्ष दो प्रकारका - १. विकलप्रत्यक्ष और २. सकलप्रत्यक्ष । विकलप्रत्यक्ष भी दो तरह
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