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६८ : प्रमाण-परीक्षा
समाधान - उक्त शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि यह बतायें कि प्रतिज्ञा क्या है और उसका एकदेश क्या है ? यदि कहें कि धर्म और धर्मीके समुदायका नाम प्रतिज्ञा है और उसका एकदेश धर्मी है । जैसे 'शब्द नाशशील है क्योंकि वह शब्द है ।' इसी प्रकार प्रतिज्ञाका एक साध्यरूप धर्म है । जैसे ' शब्द विनश्वर है, क्योंकि वह नाश होता है ।' क्या ये दोनों ही प्रकारके हेतु प्रतिज्ञार्थैकदेशासिद्ध हैं ? यदि हाँ, तो यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि धर्मी असिद्ध नहीं होता - वह सिद्ध होता है और उसे हेतु बनाने पर वह असिद्ध कैसे कहा जा सकता है अर्थात् नहीं कहा जा सकता । स्पष्ट है कि पक्षके प्रयोगके समय धर्मी वादी और प्रतिवादी दोनोंके लिए सिद्ध होता है उसी प्रकार उसे हेतु कहनेपर भी वह सिद्ध ही होता है । किन्तु साध्यरूप धर्मको हेतु बनाने पर वह प्रतिज्ञार्थ - का एकदेश होनेसे असिद्ध नहीं कहा जायेगा । अन्यथा प्रतिज्ञार्थका एक - देश होनेसे धर्मी भी असिद्ध कहा जायेगा । यथार्थ में वह ( साध्यरूप धर्म ) तो स्वरूपसे ही असिद्ध होता है । अतः प्रतिज्ञार्थैकदेशासिद्ध नामका कोई हेत्वाभास सम्भव नहीं है । अतएव उपर्युक्त हेतु ( क्योंकि वह प्रत्यक्ष है) को प्रतिज्ञार्थैकदेशसिद्ध कहनेवाला अनुमान स्वरूपका ज्ञाता कैसे कहा जा सकता है । अर्थात् उक्त हेतु असिद्ध नहीं है, क्योंकि धर्मीको हेतु बनाया गया है और धर्मी सिद्ध होता है ।
शंका-धर्मीको हेतु बनानेपर अनन्वय दोष प्राप्त होता है ?
समाधान- नहीं, विशेषको धर्मी और सामान्यको हेतु कहनेपर उक्त दोष नहीं आता । प्रकट है प्रत्यक्षविशेष ( प्रत्यक्षव्यक्ति ) को धर्मी और प्रत्यक्षत्वसामान्य ( प्रत्यक्षव्यक्तियोंमें व्यापक धर्म ) को हेतु बनाया है, तब अनन्वय दोष कैसे हो सकता है; क्योंकि वह सभी प्रत्यक्षव्यक्तियोंमें व्याप्त रहता है ।
शंका-कदाचित् वह किसी दृष्टान्तमें न रहे, तब तो अनन्वय दोष होगा ?
समाधान --- नहीं, इस तरह तो 'सभी पदार्थ क्षणभंगुर हैं, क्योंकि वे सत् है' इत्यादि अनुमानोंमें भी हेतु अनन्वयी प्राप्त होता है, क्योंकि कोई सपक्ष नहीं है ।
शंका-उपर्युक्त हेतु दृष्टान्तमें अनन्वयी होनेपर भी पक्ष में पूरे तोरसे अन्वयी सिद्ध है । इसके अतिरिक्त विपक्ष में उसके रहनेकी रंचमात्र भी सम्भावना नहीं है, अतएव 'सत्त्व' हेतु निर्दोष माना है ?
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