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प्रस्तावना : ६७
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प्रमाण । और जब अनुमान तथा आगम प्रमाण सिद्ध न होंगे, तब उनसे सिद्ध संवाद और असंवादसे प्रत्यक्ष तथा प्रत्यक्षाभासकी भी व्यवस्था नहीं होगी। फलतः सभी प्रमाणोंका विलोप हो जायगा। अतएव जो प्रमाण-व्यवस्था स्वीकार करते हैं उन्हें स्मृतिको भी प्रमाण स्वीकार करना आवश्यक है। इस प्रकार स्मृति भी अलग प्रमाण सिद्ध होनेसे अन्य दार्शनिकोंकी स्वीकृत प्रमाण-संख्याका नियम सिद्ध नहीं होता। परन्तु स्याद्वादियों द्वारा स्वीकृत प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रमाणोंकी संख्याका नियम (दो ही प्रमाण हैं, तीन आदि नहीं) निश्चयतः सिद्ध होता है, क्योंकि उनमें परोक्ष ऐसा व्यापक प्रमाणभेद है, जिसमें परसापेक्ष होनेवाले तर्क, प्रत्यभिज्ञान, स्मृति जैसे सभी प्रमाणोंका संग्रह हो जाता है। अतः 'प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही संक्षेपमें प्रमाणके भेद हैं' यह जो प्रकरणके आरम्भमें कहा गया था वह सर्वथा युक्त है।
- प्रत्यक्ष-विमर्श परोक्ष प्रमाणका विमर्श करनेके उपरान्त अब प्रत्यक्षका विमर्श किया जाता है।
सर्व प्रथम प्रत्यक्षके सद्भावको सिद्ध किया जाता है। उसका सद्भाव अनुमानसे सिद्ध होता है। वह अनुमान इस प्रकार है-प्रत्यक्ष विशदज्ञानस्वरूप है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष है । जो विशदज्ञानस्वरूप नहीं है वह प्रत्यक्ष नहीं है, जैसे अनुमान आदि ज्ञान । और प्रत्यक्ष विचार-कोटिमें स्थित ज्ञान है, इसलिए वह विशदज्ञानस्वरूप है। तात्पर्य यह कि जो ज्ञान विशद ( स्पष्ट ) होता है उसीका नाम प्रत्यक्ष है। उक्त अनुमान प्रयोगमें दत्त धर्मी, जो प्रत्यक्ष' है, अप्रसिद्ध नहीं है क्योंकि उसके विषयमें चार्वाक आदि सभी प्रमाणवादियोंको अविवाद है—सभी उसे स्वीकार करते हैं। यहाँ तक कि जो एकमात्र शून्यावत, संवेदनाद्वैत, पुरुषात आदिको स्वीकार करते हैं वे भी स्वरूप-प्रतिभासरूप प्रत्यक्षको मानते हैं। हेतु भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षको स्वीकार करनेवाले प्रत्यक्षके धर्म प्रत्यक्षत्व ( प्रत्यक्षपना ) को स्वयं स्वीकार करते हैं। तात्पर्य यह कि उक्त अनुमानमें प्रयुक्त 'क्योंकि वह प्रत्यक्ष है' हेतु सिद्ध है और सिद्ध हेतुसे साध्यकी सिद्धि अवश्य होती है । ___ शङ्का—यतः प्रतिज्ञा असिद्ध होती है, अतः उसके एक देशकोप्रत्यक्षपना धर्मको हेतु बनानेसे उपर्युक्त हेतु प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्ध है और असिद्ध हेतुसे साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती ?
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