SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ : प्रमाण-परोक्षा प्रत्यभिज्ञानप्रमाण-विमर्श प्रत्यभिज्ञान भी प्रमाण है, क्योंकि उसे न माननेपर तर्क प्रमाण नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि जिस विषयमें प्रत्यभिज्ञान नहीं होता उसमें तर्क प्रमाणकी प्रवृत्ति नहीं होती, अन्यथा अतिप्रसंग आयेगा। अर्थात् बिना प्रत्यभिज्ञानके भी तर्क प्रमाण प्रवृत्त होगा। शङ्का-प्रत्यभिज्ञान प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह ग्रहण किये पदार्थको ही ग्रहण करता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि प्रत्यभिज्ञानसे ग्रहण होनेवाला पदार्थ स्मृति और प्रत्यक्षकी विषयभूत अतीत एवं वर्तमान पर्यायोंमें व्याप्त एकद्रव्य है, जो न स्मरणका विषय है और न प्रत्यक्षका। अतएव वह अपूर्वार्थग्राही है। इसका न प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव हो सकता है. क्योंकि प्रत्यक्ष वर्तमान पर्यायमात्रको विषय करता है। और न अनुमानमें उसका अन्तर्भाव सम्भव है, क्योंकि उसमें लिङ्ग (साधन) की अपेक्षा नहीं होती। शाब्द प्रमाणमें भी उसका अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह शब्दकी अपेक्षा नहीं करता। उपमान में भी उसका समावेश नहीं होता, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान सादृश्यज्ञानके बिना भी होता है। अर्थापत्तिमें भी उसे अन्तर्भूत नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह प्रत्यक्षादि छह प्रमाणोंसे ज्ञात पदार्थके ज्ञानके बिना भी उत्पन्न होता है। तथा अभाव प्रमाणमें भी उसका अनुप्रवेश शक्य नहीं है, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान निषेध्य (घटादि) की आधार वस्तु (भूतलादि) के ग्रहण और निषेध्यके स्मरणके बिना ही होता है। इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान प्रमाणको सभी दार्शनिकोंको मानना अनिवार्य है, जो उनकी एक, दो, तीन, चार, पाँच और छह प्रमाणोंकी संख्याके नियमका विघटन करता है। तात्पर्य यह कि प्रत्यक्षादिसे अतिरिक्त प्रत्यभिज्ञान पृथक् प्रमाण है । स्मृतिप्रमाण-विमर्श स्मृतिको भी पृथक् प्रमाण मानना आवश्यक है, क्योंकि उसका भी प्रत्यक्ष आदि छह प्रमाणोंमें अन्तर्भाव नहीं हो सकता। और यह कहा नहीं जा सकता कि वह अप्रमाण है, क्योंकि उसमें किसी प्रकारका विसंवाद नहीं है-वह भी कथंचित् अपूर्वार्थग्राही एवं बाधक रहित है, जैसे अनुमान आदि । जो स्मरणको अप्रमाण मानते हैं उनके यहाँ पूर्व ज्ञात साध्य-साधन सम्बन्ध और वाच्य-वाचक सम्बन्धको अप्रमाणभूत स्मरणसे व्यवस्था न होनेसे न अनमान प्रमाण सिद्ध हो सकेगा और न शाब्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy