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________________ प्रस्तावना : ६५ भी उठायी जा सकती है। अर्थात् प्रत्यक्ष अपने विषयका निश्चय उससे सम्बद्ध होकर कराता है या असम्बद्ध होकर ? द्वितीय पक्षमें पूर्ववत् अतिप्रसंग दोष आता है। प्रथम पक्षमें यह बताना आवश्यक है कि उसके सम्बन्धका ज्ञान किससे होता है ? अनुमान आदिसे तो सम्भव नहीं है, क्योंकि वह उनका विषय नहीं है। दूसरे प्रत्यक्षसे उसका ज्ञान माननेपर वही प्रश्न उठनेसे अनवस्था आये बिना न रहेगी और उस हालतमें प्रत्यक्ष प्रमाणको भी स्वीकार करना अशक्य हो जायेगा। ___ शङ्का–प्रत्यक्षमें अपने विषयके सम्बन्धज्ञानके निमित्तसे प्रमाणता नहीं है, अपितु अपनी योग्यताके बलसे ही वह अपने विषयमें प्रमाण है। यदि ऐसा न हो, तो किसी विषयमें वह अपूर्वार्थग्राही प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हो सकेगा ? समाधान-उक्त कथन युक्त नहीं है, क्योंकि इस प्रकार ऊहा भी अपनी योग्यताके सामयंसे ही अपने विषयका निश्चय कराता है, उसके लिए अन्य प्रमाणकी आवश्यकता नहीं है। अतः ऊपर उद्भावित दूषण निरर्थक है। वह योग्यताविशेष अपने विषयके आवारक ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमविशेषरूप है और वह जिस प्रकार प्रत्यक्षमें है उसी प्रकार लहामें भी स्वीकार किया गया है, उसके सद्भावमें कोई बाधक नहीं है । तथा जिस प्रकार प्रत्यक्षकी उत्पत्तिमें मन, इन्द्रिय आदि सामग्री, योग्यताकी सहायक है, क्योंकि वह बाह्यनिमित्त है, उसी प्रकार ऊहाज्ञानकी भी उत्पत्तिमें भूयःप्रत्यक्ष (धूम और अग्निका एक साथ अनेक बार दर्शन) और अनुपलम्भ (अग्नि और धूमका अदर्शन) आदि सामग्री योग्यताकी सहकारिणी है, क्योंकि वह बहिरंगनिमित्त है। उसके होनेपर ऊहाज्ञान होता है और उसके अभावमें वह नहीं होता। तात्पर्य यह कि ऊहा अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक होता है। होनेपर होना अन्वय है और न होनेपर न होना व्यतिरेक है। जैसे अग्निके होनेपर ही धुआँ होता है, यह अन्वय है और अग्निके अभावमें धुआँ नहीं होता, यह व्यतिरेक है। इन अन्वय और व्यतिरेक पुरस्सर व्याप्तिके निश्चयके लिए ऊहा प्रमाणकी प्रवृत्ति होती है। और जब तक व्याप्तिका निश्चय नहीं होगा, तबतक अनुमान प्रमाण सिद्ध नहीं होगा। अतः कहना होगा कि 'तर्क प्रमाण है, अन्यथा अनुमानप्रमाण सिद्ध नहीं हो सकता।' इस प्रकार तर्क अपर नाम ऊहा प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमान आदिसे पृथक् प्रमाण सिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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