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६४ : प्रमाण-परीक्षा केवलव्यतिरेकी अनुमानसे, जो अन्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयलक्षणरूपं है, तर्कमें प्रमाणता सिद्ध होती है । अतः वैशेषिकोंकी भी दो (प्रत्यक्ष और अनुमान) प्रमाणोंकी मान्यता सिद्ध नहीं होती।
सांख्यादिमत-समीक्षा इसी प्रकार तीन, चार, पाँच और छह प्रमाण माननेवालोंकी प्रमाणसंख्याका भी नियम सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणोंको स्वीकार करनेवाले सांख्योंके आगमप्रमाणसे भी प्रत्यक्ष और अनुमानकी तरह साध्य और साधनके सम्बन्धका निश्चय न हो सकनेसे उसका निश्चय करनेवाले तर्कको उन्हें प्रमाण मानना पड़ता है। नैयायिकोंके प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमकी तरह उपमानसे भी लिङ्ग और लिङ्गी (साधन और साध्य) के सम्बन्ध (व्याप्ति) का ग्रहण सम्भव न होनेसे उसके ग्रहणके लिए उन्हें भी तर्क प्रमाणको स्वीकार करना अनिवार्य है। तथा प्राभाकरोंके प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमानकी तरह अर्थापत्तिसे साधन-साध्यके सम्बन्धका निश्चय सम्भव न होनेसे उसके निश्चयके लिए उन्हें भी तर्कप्रमाण मानना आवश्यक है। जो भाट्टमीमांसक प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति और अभाव ये छह प्रमाण मानते हैं, उनके प्रत्यक्ष आदिकी तरह अभाव प्रमाणसे भी व्याप्तिका निर्णय न हो सकनेसे उन्हें भी उसके निर्णयार्थ ऊहा प्रमाणको स्वीकार करना अपरिहार्य है। __ शङ्का-ऊहा अपने विषय (साध्य-साधनसम्बन्ध) के साथ सम्बद्ध होकर सम्बन्धका ज्ञान कराता है या असम्बद्ध होकर ही? यदि असम्बद्ध होकर हो वह सम्बन्धका ज्ञान कराता है, तो अनुमान भी बिना व्याप्तिसम्बन्धके ही अनुमेयका ज्ञान करा देगा। यदि सम्बद्ध होकर वह सम्बन्धका निश्चय कराता है, तो प्रश्न होता है कि उस सम्बन्धका ज्ञान किससे होता है। प्रत्यक्षसे तो सम्भव नहीं, क्योंकि वह प्रत्यक्षका विषय नहीं है। अनुमानसे भी उसके सम्बन्धका निश्चय नहीं हो सकता, क्योंकि अनवस्थाका प्रसङ्ग आयेगा। यदि अन्य ऊहासे उस सम्बन्धका निश्चय माना जाय, तो वह ऊहा भी अपने विषयके साथ सम्बद्ध होकर ही सम्बन्धका निश्चय करायेगा और उस सम्बन्धका ज्ञान अन्य ऊहापूर्वक होनेसे अनवस्था आयेगी। अर्थात् एक दूसरे पृथक् ऊहा प्रमाणसे सम्बन्धका निश्चय माननेपर वही प्रश्न होगा और अन्य-अन्य प्रमाणोंकी परिकल्पना होनेसे प्रमाणकी नियत संख्या कहीं (जैनदर्शनमें) भी सिद्ध न हो सकेगी ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उक्त प्रकारकी आपत्ति प्रत्यक्षप्रमाणपर
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