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________________ प्रस्तावना : ६३ समाधान-- उक्त कथन भी निःसार है, क्योंकि सविकल्पक प्रत्यक्षसे भी समस्त साध्यों और साधनोंके सम्बन्ध (व्याप्ति) का ग्रहण सम्भव नहीं है। प्रश्न है कि साध्य क्या अग्निसामान्य है या अग्निविशेष या अग्निसामान्यविशेष ? अग्निसामान्य तो साध्य नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें सिद्धसाधन है-- अग्नि सामान्यमें विवाद न होनेसे उसे सिद्ध करना सिद्धको सिद्ध करना है, जो व्यर्थ है। अग्निविशेष (पर्वतीय अग्नि, चत्वरीय अग्नि आदि विशेष अग्नि) भी साध्य नहीं हो सकता, क्योंकि अन्वय नहीं बनेगा । 'जहाँ धूम होता है वहाँ पर्वतीय वह्नि होती है' इस प्रकारके अन्वय प्रदर्शनका कोई स्थल नहीं है, जहाँ दोनों पाये जायें। अग्निसामान्यविशेषको साध्य बनाने पर उसके साथ धूमका सम्बन्ध (अविनाभाव), जो समस्त देश और समस्त कालवर्ती है, प्रत्यक्षसे कैसे जाना जा सकता है । तथा उसका ज्ञान न होने पर 'जहाँ-जहाँ, जब-जब धूम उपलब्ध होता है वहाँ-वहाँ तब-तब अग्निसामान्यविशेष उपलब्ध होता है' इस प्रकारके सम्बन्ध पूर्वक होने वाले अनुमानका उदय नहीं हो सकता । और यह सम्भव नहीं कि सम्बन्धका ग्रहण अन्य प्रकारसे हो और अनुमानकी उत्पत्ति अन्य प्रकारसे, क्योंकि उसमें अतिप्रसङ्ग आवेगा। अतः सम्बन्ध (व्याप्ति) ग्राही जो ज्ञान है वह एक स्वतंत्र प्रमाण है, क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमानसे सम्बन्धका ज्ञान नहीं हो सकता। ऊपर जो यह कहा गया है कि 'ऊहापोहरूप विकल्पज्ञान प्रत्यक्षका फल है, वह प्रमाण नहीं है, फल तो प्रमाणसे भिन्न होता है', वह ठीक नहीं है, क्योंकि विशेष्यज्ञान भी विशेषणज्ञानका फल होनेसे प्रमाण नहीं हो सकेगा।हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धिरूप फलको उत्पन्न करनेसे विशेष्यज्ञानको प्रमाण स्वीकार करने पर ऊहापोहविकल्पज्ञानको भो हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धिरूप फलको उत्पन्न करनेके कारण प्रमाण मानना चाहिए, क्योंकि दोनोंमें भेद नहीं है। शङ्का-ऊहा प्रमाणके विषयका परिशोधक है, प्रमाण नहीं है ? समाधान-यह कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि जो प्रमाणके विषयका परिशोधक होगा वह अप्रमाण नहीं हो सकता-अप्रमाणसे प्रमाणके विषयका परिशोधन सम्भव नहीं है। अतः हम कहेंगे कि 'तर्क प्रमाण है, क्योंकि वह प्रमाणके विषयका परिशोधक है। जो प्रमाण नहीं वह प्रमाणके विषयका परिशोधक नहीं देखा गया, जैसे प्रमेयरूप अर्थ। और प्रमाणके विषयका परिशोधक है तर्क, इस कारण वह प्रमाण है', इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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