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________________ ६२ : प्रमाण-परीक्षा की व्याप्तिका ज्ञान माना जायेगा, उस अनुमानगत व्याप्तिका ज्ञान करनेके लिए अन्य अनुमान स्वीकार करना पड़ेगा और इस तरह कहीं भी विराम न मिलनेपर प्रकृत अनुमानका उदय ही नहीं हो सकेगा। शङ्का-प्रत्यक्ष और अनुपलम्भके पश्चात् उत्पन्न एवं अप्रमाणभूत विकल्पके द्वारा साध्य और साधनकी व्याप्तिका ज्ञान सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि यदि अप्रमाणभूत विकल्पसे व्याप्तिका निश्चय स्वीकार किया जाय, तो प्रत्यक्ष और अनुमानको प्रमाण माननेकी क्या जरूरत है, मिथ्याज्ञानसे ही प्रत्यक्ष अर्थ और अनुमेय अर्थका निश्चय हो जायेगा, जैसे व्याप्तिका निश्चय अप्रमाणभूत विकल्पसे माना जाता है । अतः जिसप्रकार प्रत्यक्षको प्रमाण सिद्ध करनेके लिए अनुमानका मानना आवश्यक है, उसके बिना उसकी प्रमाणता सिद्ध नहीं हो सकती, उसी प्रकार साध्य और साधनकी व्याप्तिके ज्ञानको प्रमाण माने बिना अनुमानकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, अतः उसे (व्याप्तिज्ञानको) भी प्रमाण मानना जरूरी है और वह 'ऊहा' नामक विसंवादरहित उक्त दोनों प्रमाणोंसे अतिरिक्त प्रमाण सिद्ध है। अतएव जो (बौद्ध) कहते हैं कि 'प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाण हैं' उनकी वह प्रमाणसंख्या विधटित हो जाती है। वैशेषिकमत-समीक्षा और तर्कप्रमाणसिद्धि इस विवेचनसे वैशेषिकोंकी प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणोंकी मान्यता भी खण्डित हो जाती है, क्योंकि व्याप्तिके निश्चयके लिए उन्हें भी 'ऊहा' प्रमाण मानना आवश्यक है। शङ्का-साध्यसामान्य और साधनसामान्यका किसी व्यक्तिविशेषमहानस (रसोईघर) आदिमें प्रत्यक्षसे ही सम्बन्ध (व्याप्ति-अविनाभाव) अवगत हो जाता है, अतः उसके ज्ञानके लिए पृथक् प्रमाण आवश्यक नहीं है। 'जितना कोई धूम है वह सभी अग्निजन्य है, बिना अग्निके वह उत्पन्न नहीं होता' इस प्रकारका ऊहापोहरूप विकल्पज्ञान व्याप्तिग्राहक है, जो अलग प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह सम्बन्ध (व्याप्ति) को ग्रहण करनेवाला विकल्पज्ञान प्रत्यक्षप्रमाणका फल है। जैसे 'सूर्यमें गमनशक्ति है, क्योंकि वह गतिवाला है तथा सूर्य गतिवाला है क्योंकि एक स्थानसे दूसरे स्थानपर उसकी प्राप्ति है' इस अनुमितानुमानमें साध्य और साधनके सम्बन्धज्ञानका कारण अनुमानफल दुसरा अनुमान है। अतः प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाण हम वैशेषिकोंके सिद्ध होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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